हस्तिनापुर के कुरु वंशी राजा अपनी सत्यनिष्ठा और पराक्रम के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध थे। इस वंश के शांतनु को दो पत्नियों से तीन पुत्र हुए। भीष्म, चित्रांगद और विचित्रवीर्य। बड़े पुत्र भीष्म अखंड ब्रह्मचर्य और राजसिंहासन नहीं लेने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। इसलिए शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बने। लेकिन चित्रांगद युवावस्था में ही एक द्वंद्व युद्ध में मारे गए। अब उनके किशोरवय भाई विचित्रवीर्य को राजा बनाया गया। राजकाज उनके बड़े भाई भीष्म मंत्रियों और राजमाता सत्यवती की सलाह से चलाते थे। वंशवृद्धि के लिए भीष्म ने जल्दी ही विचित्रवीर्य का विवाह कराने का विचार किया।
भीष्म द्वारा काशीनरेश की पुत्रियों का हरण
भीष्म अपने भाई राजा विचित्रवीर्य के विवाह के लिए उपयुक्त लड़की ढूँढने लगे। उन्हे पता चला कि काशी के राजा अपनी तीन पुत्रियों का एक साथ ही स्वयंवर कर रहे थे। उनकी तीनों ही पुत्रियाँ रूप और गुणों से सम्पन्न थीं। अपने भाई के लिए पत्नी प्राप्त करने की इच्छा से भीष्म माता सत्यवती की आज्ञा लेकर अकेले रथ से काशी पहुँचे।
इस समय तक भीष्म वृद्ध होने लगे थे। उनकी अधिक आयु देख कर तीनों कन्याएँ उनसे दूर भाग गईं। अन्य राजा लोग भी उनका मज़ाक उड़ाने लगें कि अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर वे बूढ़े होने पर भी विवाह की इच्छा रखते थे। उपस्थित लोगों ने उनके आने का कारण जाने बिना ही उनके लिए कटु वचन बोला।
उनके कटु वचनों से भीष्म को क्रोध आ गया। वे बलशाली और युद्धकुशल तो थे ही। उन्होने तीनों कन्याओं को उठा कर रथ में बैठा लिया और बोले “क्षत्रियों के लिए बलपूर्वक कन्या को जीतना राक्षस विवाह के रूप में मान्य है। मैं इसी के अनुरूप इन तीनों कन्याओं का हरण कर रहा हूँ, तुमलोग अपनी पूरी शक्ति लगा कर मुझे पराजित करने का प्रयत्न करो। मैं युद्ध के लिए दृढ़ निश्चय कर के यहाँ डटा हुआ हूँ।”
भीष्म और संयुक्त राजाओं का युद्ध
काशीराज से ऐसा कह कर वे सबको ललकारते हुए रथ को शीघ्रता से लेकर चलें। उनके ललकारने से सभी राजा और उनके सैनिक योद्धा युद्ध के लिए तैयार होकर आ गए। एक तरफ भीष्म अकेले तो दूसरी तरफ बहुत सारे सशस्त्र राजा अपने सैनिकों के साथ। भयंकर युद्ध छिड़ गया। पर अकेले भीष्म ने उनके द्वारा छोड़े गए सभी अस्त्र-शस्त्रों को काट कर सभी को दो-दो बाण मार कर घायल कर दिया। उनकी वीरता की शत्रुओं ने भी प्रशंसा की।
भीष्म और शाल्वराज का युद्ध
सब को हरा कर भीष्म आगे बढ़े। तभी पीछे से शाल्वराज ने उन पर आक्रमण कर दिया। शाल्वराज ने अद्भुत युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हुए भीष्म को घायल कर दिया। राजाओं ने “वाह! वाह!” कह कर शाल्वराज की प्रशंसा की और भीष्म को ललकारा। इसे सुनकर भीष्म सीधे शाल्वराज के पास आ गए। भयंकर युद्ध के बाद भीष्म ने शाल्वराज को हरा दिया पर उसे जीवित छोड़ दिया।
राजा विचित्रवीर्य का विवाह
इस तरह सबको हरा कर भीष्म उन तीनों बहनों को लेकर अपनी राजधानी हस्तिनापुर आ गए। उन्होने उन कन्याओं के साथ पुत्री, छोटी बहन या पुत्रवधू की तरह व्यवहार रखा। राजधानी में माता सत्यवती की सलाह से इन तीनों बहनों के साथ राजा विचित्रवीर्य के विवाह की तैयारी होने लगी। बड़ी बहन अम्बा को छोड़ कर शेष दोनों बहनें, अंबिका (इसका एक नाम कौसल्या भी था) और अंबालिका- का विवाह राजा विचित्रवीर्य के साथ शास्त्रीय विधि से कर दिया गया। दोनों बहनें कुरु वश के रूप और गुणों से सम्पन्न नरेश विचित्रवीर्य को पति के रूप में पाकर बहुत प्रसन्न थीं। विचित्रवीर्य भी इन दोनों के सौन्दर्य और उनकी सेवा भाव से बहुत संतुष्ट थे।
अम्बा की कथा
इन तीनों में जो सबसे बड़ी थी उसका नाम था अम्बा। उसने जब सुना कि भीष्म अपने छोटे भाई से उनका विवाह करेंगे तब वह भीष्म से बोली कि वह शाल्वराज को अपने पति के रूप में मन-ही-मन स्वीकार कर चुकी थी। शाल्वराज की भी ऐसी ही इच्छा थी। स्वयंवर में वह उसका ही वरण करने वाली थी। उसकी बाते सुन कर भीष्म ने अपने सलाहकारों से वैवाहिक कर्म के विषय में युक्तियुक्त विचार किया। धर्म पर विचार करके उन्होने अम्बा को शाल्व नरेश के यहाँ जाने की अनुमति दे दे। लेकिन शाल्व ने यह कह कर उससे विवाह के लिए मना कर दिया कि वह उसे युद्ध में हार चुका था। अम्बा ही आगे चल कर शिखंडी बनी जो महाभारत युद्ध में भीष्म की मृत्यु का कारण था।
राजा विचित्रवीर्य की मृत्यु
नवयुवक राजा विचित्रवीर्य दोनों पत्नियों के प्रेम के कारण विलासी बन गए। हितैषियों और सगे-संबंधियों के समझाने का कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ा। असंयमित जीवन के कारण वे विवाह के सात वर्षों बाद ही राजयक्ष्मा के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। उन्हें कोई संतान नहीं थी।
राज सिंहासन की समस्या
विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद सबसे बड़ी समस्या हुई कि अब राजा किसे बनाया जाय। अब राजमाता सत्यवती ने भीष्म ने राजसिंहासन पर बैठने और विचित्रवीर्य की दोनों विधवा युवा रानियों से विवाह का प्रस्ताव रखा। माता ने आपद्धर्म पर विचार कर बाप-दादा के राज्य का वहन करने के लिए भी कहा। पर उनके बहुत समझाने पर भी भीष्म राजसिंहासन नहीं लेने और अखंड ब्रह्मचर्य की अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए।
कुरु राजवंश को बचाने की समस्या
इस प्रकार अब महान कुरु वंश का कोई उत्तराधिकारी नहीं रहा और वंश समाप्त होने का खतरा हो गया।
माता के बार-बार शांतनु और भरत के महान वंश परंपरा के नाश नहीं होने देने के आग्रह करने पर भीष्म ने उन्हें इसके लिए एक धर्मयुक्त उपाय बताया। वह उपाय था “नियोग” द्वारा विचित्रवीर्य की दोनों युवा विधवा अंबिका और अंबालिका से संतान की प्राप्ति। वंश रक्षा का कोई अन्य उपाय नहीं देख कर यह विचार सत्यवती को भी उचित लगा।
नियोग क्या था?
नियोग प्राचीन काल में प्रचलित एक प्रथा थी जिसके अनुसार ऐसी विधवा स्त्री जो पुनर्विवाह नहीं करना चाहती लेकिन संतान चाहती थी, किसी अन्य पुरुष से समागम कर संतान प्राप्त कर सकती थी। यह प्रथा क्षत्रियों में अधिक मान्य थी। यह आपद्धर्म था अर्थात अगर किसी युवा स्त्री के पति की मृत्यु हो जाय, उसका कोई पुत्र भी न हो, तो इस आपद्काल में वह नियोग द्वारा पुत्र उतपन्न कर सकती थी, जो कि पूर्णतः धर्मसंगत होता। “नियोग” की प्रथा कहीं काम-संतुष्टि या व्यभिचार का माध्यम न बन जाए इसलिए इसके नियम बहुत कठोर थे। नियोग द्वारा संतान प्राप्ति के लिए वही पुरुष चुने जाते थे जो शरीर से स्वस्थ, कुलीन, संस्कारवान, समाज में सम्मानीय, संयमी, धर्मों और शस्त्रों का ज्ञाता हो। ऐसे पुरुषों चुनाव स्त्री पक्ष के गुरुजनों द्वारा किया जाता था। अर्थात स्त्री स्वयं अपनी इच्छा से नहीं चुन सकती थी।
इस कार्य के लिए चुने गए पुरुष केवल संतान के लिए संबंध बनाता था। अतः संतान प्राप्ति के बाद संबंध का अंत हो जाता था। यह भी नियम था कि नियोग से केवल एक ही पुत्र की प्राप्ति हो सकती थी। अतः एक पुत्र के बाद संबंध नहीं बनाया जा सकता था।
वह पुरुष जब नियत रात्रि को नियत समय पर उस स्त्री के समीप आता था तो अपने सारे शरीर पर घी लगाए रहता था ताकि वह सुंदर न दिखे। दीप केवल एक बार जला कर चेहरा देखते थे दोनों एक-दूसरे का। दोनों को बात करने की अनुमति नहीं होती थी। नियोग का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उस पुरुष और स्त्री का संबंध पिता और पुत्रवधू के समान हो जाना चाहिए अर्थात दोनों में काम विषयक भावना नहीं होनी चाहिए।
इन नियमों का उद्देश्य था कि यह संबंध कामवश नहीं बल्कि कर्तव्य बोध के कारण बने। बाद में “कलिवर्ज्य” प्रथा की श्रेणी में डाल कर इसे बंद कर दिया गया। कलिवर्ज्य प्रथा का अर्थ होता है, ऐसी प्रथा जिसमें अति संयम की आवश्यकता होती है। चूँकि कलियुग में व्यक्ति इतने धर्मनिष्ठ और संयमशील नहीं होते हैं, इसलिए ये प्रथाएँ कलियुग में नहीं अपनाई जा सकती है। कलियुग में यह पाप की श्रेणी में आ जाएगा।
नियोग द्वारा विचित्रवीर्य के उत्तराधिकारियों की प्राप्ति के लिए वेद व्यास का चुनाव
राजमाता सत्यवती नियोग द्वारा उत्तराधिकारी प्राप्त करने पर सहमत तो हो गई लेकिन अब प्रश्न था कि इस कार्य के लिए उपयुक्त पुरुष कौन हो? इस समय सत्यवती को विवाह से पहले ऋषि पराशर से उत्पन्न अपने पुत्र कृष्ण दौपायन (वेद व्यास) की याद आई। वह परम तपस्वी, सभी वेदों एवं शास्त्रों के ज्ञाता, धर्म मर्मज्ञ, और संयमी थे। थोड़े संकोच और लज्जा के साथ उन्होने भीष्म के अपने उस पुत्र और उसके जन्म के विषय में बताया। सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण इस वंश से उनका संबद्ध था। महर्षि व्यास का नाम लेते ही भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और माता के विचार से सहमति जताई।
भीष्म की सहमति के बाद राजमाता सत्यवती ने अपने पुत्र महर्षि वेद व्यास का आवाहन किया। उनके चिंतन करते ही व्यास जी वेद मंत्रों का पाठ करते हुए प्रकट हो गए। वे कब, किधर से आ गए, यह किसी को पता नहीं चला। अपने पुत्र को दीर्घ काल के बाद देखने से सत्यवती का वात्सल्य उमड़ पड़ा। स्वागत-सत्कार और कुशलक्षेम के बाद उन्होने अपने पुत्र वेद व्यास से सारी बाते बताई। अनेक प्रकार से उन्हें समझाते हुए सत्यवती ने कहा कि “तुम्हारे छोटे भाई विचित्रवीर्य की दोनों सुंदर और युवा विधवाएँ धर्मतः पुत्र पाने की कामना रखतीं हैं। तुम इसके लिए समर्थ हो। अतः उन दोनों के गर्भ से ऐसी संताने उत्पन्न करो जो इस कुल परंपरा की रक्षा तथा वृद्धि के लिए सर्वथा सुयोग्य हो।”
व्यास जी ने कहा “माता! आपकी सभी धर्मों की ज्ञाता हैं, आपकी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहती है। अतः मैं आपकी आज्ञा से धर्म को दृष्टि में रख कर (काम के वश में होकर नहीं) आपकी इच्छा के अनुरूप कार्य करूंगा।” उन्होने यह भी कहा कि “विचित्रवीर्य की स्त्रियों को मेरे बताए हुए विधि अनुसार एक वर्ष तक विधिपूर्वक व्रत (जितेंद्रिय हो कर केवल संतानार्थ साधना) करना होगा, तभी वे शुद्ध होंगी। जिसने व्रत पालन नहीं किया है, ऐसी कोई स्त्री मेरे समीप नहीं आ सकती।”
धृतराष्ट्र का जन्म
सत्यवती ने शीघ्र ही राज्य के लिए उत्तराधिकारी का आग्रह किया क्योंकि उस समय राज्य का कोई राजा नहीं था। भीष्म ही बिना किसी राजा के राजमाता सत्यवती और अन्य सलाहकारों की सलाह से राज्य का संचालन कर रहे थे। लेकिन बिना राजा के राज्य का होना राज्य की सुरक्षा और अनुशासन के लिए उचित नहीं था। इस पर वेद व्यास जी ने कहा कि “अगर कौसल्या (अंबिका) मेरे गंध, रुप, वेश और शरीर को सहन कर ले तो आज ही वह एक उत्तम बालक को अपने गर्भ में पा सकती है।” सत्यवती ने उनकी बातों से सहमति दिखाया।
तदुपरान्त उन्होने जाकर अपनी पुत्रवधू को समझा-बुझा कर इस कार्य के लिए तैयार किया। नियत रात्री को जब व्यास ऋषि आए तो नियोग प्रथा के नियमों के अनुसार शरीर पर घी लगा कर संयतचित्त होकर आए। व्यास जी का शरीर सुंदर नहीं था। उनका रंग काला और जटाएँ पिंगल रंग की, दाढ़ी-मूँछ भूरे रंग की थी और आँखें चमक रही थी। उनका असुंदर शरीर घी लगे होने के कारण और भी कुरूप लग रहा था। उस समय वहाँ अनेक दीपक प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देख कर अंबिका ने अपनी आँखें बंद कर ली। माता की इच्छा का पालन करने के उद्देश्य के लिए उन्होने अंबिका से समागम किया।
बाहर आकर माता के पूछने पर उन्होने कह कि “अंबिका को एक पुत्र होगा, वह दस हजार हाथियों के समान बलवान, विद्वान, राजर्षियों में श्रेष्ठ, तथा अत्यंत बुद्धिमान होगा। उसके सौ पुत्र होंगे। किन्तु माता के दोष से वह बालक अंधा होगा।” समय आने पर अंबिका ने एक अंधे पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम धृतराष्ट्र रखा गया।
पाण्डु का जन्म
चूँकि कुरुवंश का राजा अंधा हो यह उचित नहीं होता इसलिए माता ने दूसरे पुत्र के लिए व्यास जी से आग्रह किया। इसके बाद सत्यवती ने अपनी दूसरी पुत्रवधू अंबालिका को समझाबुझा कर नियोग के लिए तैयार किया। महर्षि व्यास ने माता की आज्ञा अनुसार नियोग के नियम के अनुसार संयमपूर्वक समागम किया। किन्तु व्यास जी को देख कर वह भी डर कर कांतिहीन तथा पाण्डु वर्ण की हो गई।
व्यास जी ने कहा कि “तुम मुझे देख कर पाण्डु वर्ण की सी हो गई थी, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र पाण्डु रंग का ही होगा। इसका नाम ‘पाण्डु’ होगा।” समय आने पर अंबालिका ने एक पाण्डु वर्ण के बच्चे को जन्म दिया।
माता सत्यवती को जब बालक के पाण्डु रंग का होने का पता चला तो वह दुखी हो गई और व्यास जी से एक और पुत्र उत्पन्न करने के लिए आग्रह किया।
विदुर का जन्म
माता सत्यवती ने बड़ी पुत्रवधू अंबिका को एक बार पुनः व्यास जी के पास जाने के लिए समझाया। लेकिन व्यास जी के कुत्सित रूप और गंध को याद कर अंबिका को उनके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। अतः अपनी सास सत्यवती की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए अपने स्थान पर अपनी एक सुंदर शूद्र दासी को अपने कपड़े और आभूषण पहना कर भेज दिया।
उस दासी ने आगे बढ़ कर व्यास जी का स्वागत किया और सत्कार किया। उससे व्यवहार से महर्षि व्यास बहुत संतुष्ट हुए। उन्होने कहा “तू अब दासी नहीं रहेगी। तेरे गर्भ में एक अत्यंत श्रेष्ठ बालक आया है। वह धर्मात्मा और समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होगा।”
महर्षि व्यास ने माता सत्यवती से सारी बात बताया और कहा कि अंबिका ने अपनी दासी को मेरे पास भेज कर मेरे साथ छल किया है, इसलिए शूद्र दासी के गर्भ से ही पुत्र उत्पन्न होगा।
वही पुत्र विदुर हुए जो कृष्ण दौपायन व्यास महर्षि और दासी के पुत्र थे। एक ही पिता की संतान होने के कारण वह राजा धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे। वास्तव में विदुर धर्मराज थे। महात्मा मांडव्य के शाप से धर्मराज को मनुष्य योनि में आना पड़ा था।
कुरु वंश की पुनर्स्थापना
विचित्रवीर्य की पत्नियों द्वारा और महर्षि व्यास के तीनों पुत्रों- धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर- के जन्म से कुरुवंश, कुरुपांचाल देश और कुरुक्षेत्र- इन तीनों की बड़ी उन्नति हुई। समस्त राज्य में सुख शांति थी। तीनों भाइयों का पालन भीष्म जी ने अपने पुत्र की भाँति किया। तीनों भाई विभिन्न विद्याओं और युद्ध कला में निपुण थे। पर पराक्रम में पाण्डु, बल में धृतराष्ट्र और धर्मपरायणता में विदुर सबसे बढ़चढ़ कर थे। नष्ट हुए कुरु वंश को फिर से फलते-फूलते देख कर राज्य के लोग भी बहुत प्रसन्न थे। युवा होने पर इनके राज्याभिषेक पर विचार किया गया। सबसे बड़े पुत्र धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण और छोटे पुत्र विदुर को पारशव (शूद्र के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उतपन्न संतान) होने के कारण राज्याभिषेक के लिए अयोग्य माना गया। अतः पाण्डु को राजा बनाया गया।
धृतराष्ट्र–गांधारी विवाह
धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर- तीनों भाई जब बड़े हुए तो भीष्म ने इनके विवाह का विचार किया। गांधार राज सुबल की पुत्री के विषय में उन्हें ब्राह्मणो से पता चला कि वह भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्र होने का वरदान प्राप्त कर चुकी थी। गांधारी को धृतराष्ट्र के लिए भीष्म ने उपयुक्त माना।
भीष्म ने राजा सुबल के पास धृतराष्ट्र से उनकी पुत्री गांधारी के विवाह के लिए प्रस्ताव भेजा। धृतराष्ट्र अंधे थे, इस बात पर सुबल ने बहुत विचार किया। किन्तु उनके कुल, प्रसिद्धि और आचार आदि के विषय में विचार कर विवाह के लिए सहमत हो गए।
गांधारी ने जब सुना कि उनके माता-पिता ने अंधे धृतराष्ट्र से उनका विवाह तय कर दिया, तब उन्होने निश्चय किया कि वे सदा पति के अनुकूल रहेंगी तथा कभी पति का दोष नहीं देखेंगी। अतः उन्होने रेशमी वस्त्र लेकर उसके कई तह कर उससे अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली। इसके बाद उनके भाई शकुनि अपनी बहन गांधारी को लेकर हस्तिनापुर गया और धृतराष्ट्र को अपनी बहन सौंप दी। यहीं शकुनि ने भीष्म की सम्मति के अनुसार विवाह कार्य सम्पन्न किया। विवाह के बाद वह अपनी राजधानी लौट आया।
कुंतल प्रदेश की राजकुमारी कुंती
भीष्म को यदुवंशी राजा शूरसेन की पुत्री, जिसे राजा कुंतिभोज को गोद दे दिया गया था, के विषय में पता चला। कुल और रूपगुण में वह कुरु वंश के सर्वथा योग्य थी। भीष्म ने उनसे राजा पाण्डु के विवाह का विचार किया।
यदुवंश के राजा शूरसेन अपने फुफेरे संतानहीन भाई कुंतिभोज से अपनी पहली संतान भेंट देने की प्रतिज्ञा उनके जन्म से बहुत पहले ही कर चुके थे। उनकी पहली संतान पुत्री हुई। जन्म के बाद उनका नाम पृथा रखा गया था। अतः पृथा राजा कुंतिभोज को गोद दे दी गई। यहाँ वह अपने पालने वाले पिता के नाम पर कुंती कहलाई।
कुंती–पाण्डु विवाह
रूप एवं गुणों से संपन्न राजकुमारी कुंती के लिए कई राजाओं ने उनके पिता कुंतिभोज को विवाह प्रस्ताव भेजा। कुंतिभोज ने अपनी पुत्री का स्वयंवर कर इन सभी राजाओं को उसमें बुलाया। इस स्वयंवर में भरत वंश के राजा पाण्डु भी थे। स्वयंवर में कुंती ने पाण्डु को पसंद किया और उनके गले में जयमाला डाल दिया। राजा कुंतिभोज ने कुंती- पाण्डु का विधिवत विवाह करा दिया।
पाण्डु–माद्री विवाह
उस समय राजाओं में कई विवाह करने का प्रचलन था। अतः भीष्म ने पाण्डु का दूसरा विवाह कराने का विचार किया। इसका कारण यह था कि भरत वंश (कुरु वंश) एक बार नष्टप्राय होने के बाद पुनः जीवित हुआ था। लेकिन धृतराष्ट्र अंधे और पाण्डु बीमार थे। इसलिए उन्हें इस वंश को बनाए रखने की चिंता थी। इसी विचार की सिद्धि के लिए वे मद्र देश के बाहिक वंश के राजा मद्रराज शल्य की राजधानी गए। मद्रराज ने भीष्म का यथोचित आदर सत्कार किया।
भीष्म ने मद्रराज शल्य से उनकी बहन माद्री और अपने भाई पाण्डु के विवाह का प्रस्ताव रखा। इस पर मद्रराज ने कहा “आप लोगों से श्रेष्ठ वर मुझे ढूँढने से भी नहीं मिलेगा। परंतु इस कुल में पहले के श्रेष्ठ राजाओं ने कुछ शुल्क लेने का नियम चला दिया है। वह अच्छा हो या बुरा, मैं उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।”
भीष्म ने उनसे उनके कुल का धर्म और मर्यादा पालन करने के लिए कहा और शुल्क के रूप में बहुमूल्य संपत्ति भेंट किया। इसके बाद शल्य ने अपनी बहन माद्री को वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित कर राजा पाण्डु के लिए भीष्म को सौंप दिया। हस्तिनापुर में शुभ मुहूर्त में पाण्डु और माद्री का विधिवत विवाह हुआ।
विदुर का विवाह
भीष्म को राजा देवक की एक कन्या, जो शूद्र जातीय स्त्री के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न की गई थी, के विषय में पता चला। वह कन्या रूप और गुण से सम्पन्न थी। भीष्म ने देवक से उस कन्या की माँग विदुर से विवाह के लिए की। देवक इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। हस्तिनापुर में दोनों का विवाह विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ।