कुंती और पांडवों का हस्तिनापुर लौटना
शतशृंगी वन में रहने वाले ऋषि-मुनियों ने पांडु और माद्री का विधिवत रूप से अंतिम संस्कार कराया। तत्पश्चात उनलोगों ने आपस में विचार किया कि राजा पांडु अपना राज्य छोड़ कर इस वन में अपने परिवार के साथ रहते थे। अब उनके नहीं रहने से उनके बच्चों और पत्नी के सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उन ऋषि-मुनियों की ही थी। इसलिए इन राजकुमारों को अब राजोचित सुख-सुविधा और सम्मान मिलना चाहिए। इसलिए सबने विचार किया की पांडु और माद्री की अस्थियों, कुंती और पांचों भाइयों को लेकर हस्तिनापुर चला जाय। इन्हें भीष्म और धृतराष्ट्र के हाथों में सौंप देना चाहिए।
यह विचार कर शतशृंगी में रहने वाले ऋषि-मुनियों का एक प्रतिनिधि मण्डल कुंती, पांचों पांडव भाइयों तथा पांडु एवं माद्री की अस्थि लेकर हस्तिनापुर के लिए चले। महर्षियों के योग के प्रभाव से इतने लंबे रास्ते को सब ने बहुत कम समय में तय कर लिया।
सहसत्रों चारणों के साथ इतने मुनियों को देख कर हस्तिनापुर के लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ। लोग बड़ी संख्या में उनके दर्शन करने के लिए आने लगे। इनमें राज परिवार के स्त्री और पुरुष भी शामिल थे।
जब नगर, जनपद और राजपरिवार के बहुत से लोग वह आ गए जहाँ यह प्रतिनिधि मण्डल था और सभी वहाँ बैठ गए, तब भीष्म ने उन महर्षियों का आदर-सत्कार कर कुशलक्षेम निवेदन किया। इसके बाद उन ऋषियों में जो सबसे अधिक वृद्ध थे, ने शतश्रिंगी वन में पांडु के रहने और उनके पुत्रों के जन्म का वृतांत सुनाया और पांडु के सभी पुत्रों का सबको परिचय दिया। साथ ही सत्रह दिन पहले उनके और माद्री के स्वर्ग गमन का समाचार भी सुनाया। उन्होने कहा ‘आप माद्री और पांडु का श्राद्ध क्रिया करने के साथ ही माता सहित इन पुत्रों को भी अनुग्रहित करें। सपिंडीकरणपर्यंत प्रेतकार्य निवृत हो जाने पर कुरु वंश के श्रेष्ठ पुरुष महायशस्वी एवं सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता पांडु को पित्रमेघ (यज्ञ) का लाभ भी मिलना चाहिए।’
समस्त लोगों के समक्ष कुरु वंशी गणमान्य लोगों से ऐसा कह कर सबके देखते-देखते वे सभी वहाँ से अन्तर्धान हो गए। इस पर सभी विस्मित होकर उनके साधना की सराहना करने लगे।
हस्तिनापुर में पांडु और माद्री का श्राद्ध कर्म
यह सब सुनने के बाद धृतराष्ट्र ने विदुर से पांडु का समस्त प्रेत कर्म राजोचित ढंग से करने का आदेश दिया और इसके लिए यथेष्ट धन दिया। दोनों की अंतिम क्रिया के बाद बंधु-बांधवों ने दोनों को जलांजलि दिया। 12 रात्रि तक जिस प्रकार बंधु-बांधवों के साथ पांडव जमीन पर सोते रहे वैसे ही समस्त नगर के नागरिक भी जमीन पर ही सोते रहे। इतने दिन तक राज्य भर में कोई उत्सव नहीं मनाया गया।
हस्तिनापुर में पांडव और कुंती
इसके बाद कुंती अपने पुत्रों सहित हस्तिनापुर में ही रहने लगी। समस्त प्रजा अपने पूर्व राजा के सुयोग्य पुत्रों को पाकर खुश थी। पांडवों के समावर्तन जैसे संस्कार हस्तिनापुर में ही हुए।
कौरवों-पांडवों में फूट के बीज
लेकिन अब राजपरिवार में कलह के अंकुर भी निकलने लगा। इतने दिनों तक पांडु राज्य से दूर थे। धृतराष्ट्र राजा थे। उनके पुत्र ही राजगद्दी के उत्तराधिकारी होते। लेकिन अब गद्दी के और सक्षम दावेदार अचानक आ गए थे। सवाल यह था कि धृतराष्ट्र पांडु की अनुपस्थिति की आपात स्थिति में राजा बने थे। पांडु के उत्तराधिकारियों को उनका राज्य वापस कर दिया जाय? दूसरी तरह कौरवों का मानना था कि इस गद्दी के असली अधिकारी बड़े होने के कारण धृतराष्ट्र थे। पांडु केवल इस कारण राजा बने थे कि धृतराष्ट्र दृष्टिहीन थे। पर उनके बच्चे किसी ऐसी अयोग्यता से ग्रसित नहीं थे। इसलिए कौरव ही गद्दी के वास्तविक हकदार थे। पांडवों की योग्यता और लोकप्रियता से कौरवों की यह ईर्ष्या और बढ़ रही थी।
सत्यवती, अंबिका, अंबालिका का तपस्या के लिए वन जाना
कुरु वंश के दोनों शाखाओं में भेद और द्वेष को वेद व्यास पहले ही समझ गए थे। पांडु एवं माद्री के श्राद्ध के बाद राजमाता सत्यवती बहुत दुखी थी। व्यास ने उनसे कहा “माँ! अब सुख के दिन बीत गए। बड़ा भयंकर समय आने वाला है। उत्तरोत्तर बुरे दिन आ रहे हैं। दुर्योधन आदि कौरवों के अन्याय से सारी पृथ्वी वीरों से शून्य हो जाएगी। अतः तुम योग का आश्रय लेकर यहाँ से चली जाओ और योग पारायण हो तपोवन में निवास करों। तुम अपनी आँखों से इस कुल का संहार न देखो।”
व्यास जी की बात मान कर सत्यवती ने अपनी पुत्रवधू अंबिका (धृतराष्ट्र की माता) से अंबालिका (पांडु की माता) को साथ लेकर वन जाने की आज्ञा मांगा। पर अंबिका भी वन में जाना चाहती थी। अतः सत्यवती अपनी दोनों बहुओं के साथ वन में चली गई।
तीनों ने वन में अत्यंत कठोर तपस्या किया। समय आने पर तीनों शरीर त्याग कर अभीष्ट गति को प्राप्त हो गईं।