श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र यज्ञ रोकना
एक दिन श्रीकृष्ण ने देखा कि ब्रज में सभी गोप इन्द्रयज्ञ की तैयारी कर रहे है। सबकुछ जानने के बावजूद उन्होने अपने पिता से पूछा कि यह किस उत्सव की तैयारी हो रही है।
नंदजी ने उन्हें बताया कि इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी है। यह यज्ञ उनको प्रसन्न करने के लिए किया जा रहा है। उन्होने यह भी बताया कि यह पूजा उनके यहाँ कुल परंपरा से चली आ रही है।
श्रीकृष्ण ने इन्द्र का अभिमान तोड़ने के लिए और उन्हें क्रोध दिलाने के लिए अपने पिता से कहा कि प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही परिणामों को पाता है। कर्मों का फल देने वाला ईश्वर भी कर्म के अनुसार ही फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती। जब सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही फल भोग रहे है तब हमे इन्द्र की क्या आवश्यकता है?
उन्होने अनेक प्रकार से पिता और अन्य गोपों को समझाया कि उन्हें गाय, ब्राह्मण और गिरिराज जी की पूजा करनी चाहिए, जो कि उन्हें आश्रय और आजीविका देते हैं। यह पूजा गाय, ब्राह्मण और गिरिराज के साथ-साथ मुझे भी प्रिय होगी।
गिरिराज गोवर्धन की पूजा
नंदजी और अन्य गोपों ने श्रीकृष्ण की सलाह के अनुसार इन्द्र के पूजा के लिए एकत्र की गई सामग्री से गिरिराजजी और ब्रह्मणों को भेंट कर दिया और गायों को हरी-हरी घास खिलाया। उन्होने गायों को आगे कर गिरिराजजी की परिक्रमा किया। ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त करके सभी गोपियाँ भलिभांति सिंगार करके बैलों से जुती हुई गाड़ियों में बैठ कर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई गिरिराजजी की परिक्रमा करने लगीं।
श्रीकृष्ण गोपों को विश्वास दिलाने के लिए गिरिराज के ऊपर स्वयं एक दूसरा विशाल शरीर धारण कर प्रकट हो गए और “मैं गिरिराज हूँ” यह कहते हुए सारी सामग्री स्वीकार करने लगे। श्रीकृष्ण ने अन्य ब्रजवासियों के साथ स्वयं भी अपने उस रूप को प्रणाम किया और कहा कि देखो कैसा आश्चर्य है कि गिरिराज जी ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, ये उसका नाश कर देते है। आओ! अपना और अपने गायों का कल्याण करने के लिए हम इनको नमस्कार करें।”
इस प्रकार श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नंदजी आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया और सब ब्रज में लौट आएँ।
ब्रज पर इंद्रदेव का कोप
इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमंड था। उन्होने जब देखा कि उनकी पूजा बंद हो गई तो वे नंदजी और गोपों पर बहुत क्रोधित हुए। उन्होने इसका ज्ञान किए बिना कि इनके रक्षक स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं, अपने गण सांवर्तक को ब्रज पर चढ़ाई करने के लिए भेजा।
सांवर्तक जल वृष्टि से प्रलय लाने वाले मेघों को लेकर ब्रज में आ गया। इंद्र भी उसके पीछे-पीछे अपने ऐरावत हाथी पर चढ़ कर महापराक्रमी मरुत गणों के साथ आए। ब्रज में मूसलाधार बारिश होने लगी। प्रचंड आंधी और बिजली की कड़क के साथ ओले भी बरसने लगें।
ब्रज का कोना-कोना जलमग्न हो गया। लोग पानी से तो व्याकुल थे ही, ठंढ से भी ठिठुर रहे थे। वे सब श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचे।
श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण
अपने शरणागतों की रक्षा करने का अपने व्रत को देखते हुए श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा के लिए खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और अपने हाथों में उसे छत्र की तरह धारण कर लिया। वे सात दिनों तक इसी तरह गोवर्धन धारण किए रहे।
उन्होने सभी ब्रजवासियों को अभय करते हुए अपनी गायों और सभी सामग्रियों को लेकर इसके नीचे आने के लिए कहा। उनके आश्वासन के अनुसार सभी ब्रजवासी अपने सगे-संबंधियों और संपत्तियों के साथ गोवर्धन के गड्ढे में आ गए। ऊपर गोवर्धन का छत्र था।
श्रीकृष्ण ब्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भूल कर सात दिनों तक इसी तरह लगातार गोवर्धन धारण किए रहे।
इन्द्र का मान भंजन
श्रीकृष्ण द्वारा सात दिनो तक गोवर्धन धारण देख कर इन्द्र का सारा अभिमान जाता रहा। उन्होने अपने गणों को रोक दिया। आंधी और वर्षा रुक गई। आकाश में बादल छंट गए और सूर्य देव दिखने लगे। नदियों का पानी भी उतरने लगा।
श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर सभी ब्रजवासी वहाँ से निकल गए। श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को पुनः उसके स्थान पर पूर्ववत रख दिया।
पर्वत को रखते ही समस्त ब्रजवासी उनके पास आए और प्रेम के आवेग से उन्हे हृदय से लगा लिया। बड़े-बूढ़ों ने उनका मंगल अभिषेक किया और आशीर्वाद दिया। आकाश स्थित देवता, गंधर्व, सिद्ध आदि उनपर फूलों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। स्वर्ग में देवता शंख और नौबत बजने लगे। इसके बाद श्रीकृष्ण समस्त बंधु-बंधवों के साथ आनंदपूर्वक ब्रज को लौट आए।
ब्रजवासियों का कृष्ण को भगवान मानना
एक सात वर्षीय बालक द्वारा इस तरह पहाड़ को उखाड़ लेना और सात दिनों तक उसे हाथ में लेकर खड़े रहना एक अत्यंत अलौकिक कार्य था। समस्त ब्रजवासी श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण की इस घटना के बाद इसकी चर्चा कर रहे थे।
एक बार वे एकत्र हुए और श्रीकृष्ण के बारे में बातें करने लगे। इस तरह का अलौकिक बालक उन जैसे गँवार ग्रामीणों के बीच पैदा हुआ, यह उनके लिए आश्चर्य और आनंद का विषय था लेकिन उनके अनुसार यह श्रीकृष्ण के लिए निंदा का विषय था।
नन्द जी द्वारा गर्गाचार्य के बातें बताना
उन्होने श्रीकृष्ण द्वारा किए गए सभी अलौकिक और विस्मित करने वाले कार्यों का और अपने सब के उन पर प्रेम का वर्णन करते हुए उनके पिता नंदजी से इसका कारण पूछा। नंदजी ने उनकी शंका दूर करते हुए बताया कि महर्षि गर्ग आचार्य ने इस बालक के विषय में नामकरण के समय ऐसा ही कहा था। उन्होने आचार्य गर्ग द्वारा उनके विभिन्न नाम होने और पहले कहीं वसुदेव के घर पैदा होने के कारण श्रीमान वासुदेव कहलाने की बाते भी बताया।
उनकी भविष्यवाणी के अनुसार यह बालक गायों और गोपों का बहुत कल्याण करेगा और उन्हे आनंदित करेगा। इस बालक की सहायता से ब्रजवासी बड़ी-सी-बड़ी विपत्ति को सुगमता से पार कर लेंगे। नन्द बाबा ने कहा कि जब से आचार्य गर्ग ने उन्हें उनके पुत्र के विषय में ये बातें बताई, तब से वे उसे भगवान नारायण का ही अंश मानते है। अतः इस बालक के अलौकिक कार्यों को देख कर आश्चर्य नहीं करना चाहिए। नंदजी के मुख से आचार्य गर्ग की वाणी सुन कर सभी ब्रजवासी अत्यंत प्रसन्न हुए और उनका संदेह मिट गया। वे प्रसन्नतापूर्वक श्रीकृष्ण और नंदजी की प्रशंसा करने लगें।