शंखचूड़ का उद्धार
एक दिन श्रीकृष्ण और श्रीबलराम दोनों भाई गोपियों के साथ रात में वन में विहार कर रहे थे। श्रीबलराम जी नीले रंग का और श्रीकृष्णजी पीले रंग का वस्त्र धरण किए हुए थे। दोनों के गले में फूलों की माला और शरीर पर तरह-तरह के आभूषण और चन्दन आदि लगे हुए थे।
गोपियाँ ललित स्वरों में प्रेम और आनंद के साथ उनके गुणों का गान कर रहीं थीं। वातावरण बड़ा मनोरम था। आकाश में तारे उगे थे, चाँदनी छिटक रही थी, बेला और जलाशय में खिली कुमुदनी की सुगंध लेकर वायु धीमे-धीमे चल रही थी। दोनों भाइयों ने भी मिलकर एक अत्यंत मधुर राग अलापा जिसे सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गईं। उन्हें अपने देह ही सुध-बुध भी नहीं रही।
शंखचूड द्वारा गोपियों का अपहरण
जिस समय दोनों भाई इस तरह गाते हुए उन्मुक्त विहार कर रहें थे, उसी समय वहाँ शंखचूड़ नामक यक्ष आया। वह कुबेर का अनुचर था। दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर उत्तर दिशा की ओर भाग चला। गोपियाँ दोनों भाइयों को पुकारने लगीं।
दोनों भाई “डरो मत, डरो मत” कहते-कहते हाथ में शाल का वृक्ष लेकर क्षण भर में ही उस यक्ष के पास पहुँच गए। उन्हें देख कर वह यक्ष गोपियों को वहीं छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए भाग गया।
श्रीकृष्ण द्वारा शंखचूड का वध
बलरामजी गोपियों की रक्षा करने के लिए वहीं खड़े रह गए और कृष्णजी ने उसका पीछा किया। जल्दी ही वे यक्ष के पास पहुँच गए और उसे पकड़ लिया। उन्होने उसके सिर पर ज़ोर से घूंसा मारा जिससे उस यक्ष शंखचूड़ का सिर उसके चूड़ामणि के साथ धड़ से अलग हो गया।
उस चमकीले चूड़ामणि को लेकर वे लौट आए और गोपियों के सामने ही उसे अत्यंत प्रेम से अपने बड़े भाई बलराम जी को दे दिया।