युद्ध में कुंभकर्ण की मृत्यु कैसे हुई?-भाग 50

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अब तक युद्ध में अधिकांश सेनापतियों की मृत्यु हो चुकी थी। मेघनाद के दिव्यास्त्र नागपाश से घायल होकर भी राम-लक्ष्मण जीवित बच गए थे। रावण स्वयं राम से प्रत्यक्ष युद्ध में पराजित हो चुका था। घायल और अपमानित होकर केवल राम की कृपा से उसकी जान बच सकी थी। अतः उसने अपने बचे हुए योद्धाओं में सबसे अधिक शक्तिशाली योद्धा अपने भाई कुंभकर्ण को युद्ध में भेजने का निश्चय किया।

कुंभकर्ण कौन था?

कुंभकर्ण रावण का भाई था। वह देखने में बहुत विशाल और युद्ध में परम पराक्रमी था। वह भोजन बहुत अधिक करता था। उसके भोजन के लिए बहुत से प्राणी और प्रजाजन एक दिन में मारे जाते थे। ब्रह्माजी ने सोचा कि अगर यह प्रतिदिन भोजन करेगा तो पृथ्वी पर आबादी ही समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होने उसे नींद का वरदान दे दिया।

वह छह महीने तक लगातार सोया रहता था। कभी-कभी इससे ज्यादा भी सोया रहता था। एक सुंदर गुफा में बहुत अच्छा फर्श और बहुत बड़ा दरवाजा बना कर उसके लिए सोने का स्थान बनाया गया था। वहीं वह सोया रहता था। वह उठता था बहुत सारा खा-पी कर और थोड़ा-बहुत बातचीत कर फिर सो जाता था। जब सीता का अपहरण कर रावण लंका में ला चुका था, तब सलाह करते समय वह उठा हुआ था। उसने रावण द्वारा सीता हरण का कड़ा विरोध किया और उन्हें सादर राम को लौटा देने का सुझाव दिया था। पर उसके बाद से नौ महीने से सोया हुआ था। उसे युद्ध शुरू होने आदि का कुछ भी पता नहीं था।

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अब युद्ध में आपात स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण रावण ने उसे जगा कर युद्ध में भेजने का निश्चय किया। 

कुंभकर्ण को राक्षसों के पराजय का पता चलना

बहुत यत्न करने पर कुंभकर्ण को जगाया जा सका। जागते ही उसने बहुत-सा भोजन किया और कई मटके मदिरा पिया। उसके बाद स्नान आदि करके रावण की इच्छा अनुसार उससे मिलने गया।

जब वह रावण से मिलने उसके महल जा रहा था, उस समय उसका विशालकाय शरीर किले से बाहर से ही वानर सेना को दिखा। उसकी विशालता देखते ही वानर सेना में भय व्याप्त हो गया। विभीषण ने उसका परिचय राम को दिया।

रावण द्वारा कुंभकर्ण को युद्ध में राक्षस सेना की हार का पता चला। बड़े-बड़े सेनापति मारे जा चुके थे। खजाना खाली हो चुका था।

कुंभकर्ण का युद्ध के लिए जाना

कुंभकर्ण पहले भी सीता हरण के लिए रावण का विरोध कर चुका था। इस समय भी उसने रावण के कृत्य को गलत बताया। लेकिन फिर भी लंका और राक्षस समुदाय के सम्मान के लिए पूरे मनोयोग से युद्ध करने का उसने आश्वासन दिया। रावण से विचार-विमर्श कर उसका आशीर्वाद लेकर और पुनः खा-पी कर पूरी तैयारी के साथ कुंभकर्ण युद्धभूमि में आ गया।

कुंभकर्ण द्वारा वानर सेना का विनाश

कुंभकर्ण के रणभूमि में पहुँचते ही भगदड़ मच गया। वह वानर सैनिकों को कुचलने और पकड़-पकड़ कर खाने लगा। अंगद अपनी सेना को प्रोत्साहन देते हुए भागने से रोकने लगे और कुंभकर्ण से स्वयं युद्ध करने लगे। हनुमान, सुग्रीव आदि ने भी उसे रोकने का प्रयास किया। लेकिन वानर योद्धाओं के प्रहार का उस पर कोई असर नहीं होता था। वृक्ष और शिलाएँ भी उसके शरीर पर बेअसर रहती थी।

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कुंभकर्ण-राम युद्ध

अंत में स्वयं राम कुंभकर्ण के समक्ष आ गए। राम के बाण वर्षा के सामने अंततः वह निढ़ाल हो गया। राम पर प्रहार करने के लिए कुंभकर्ण एक विशाल शिला लेकर दौड़ा। लेकिन राम के बाण से उसके दोनों हाथ कट गए।

कुंभकर्ण की मृत्यु

फिर भी कुंभकर्ण ने युद्ध नहीं छोड़ा और अपने पैरों से वानर सेना को कुचलते हुए घूमता रहा। राम ने बाण मार कर उसके पैर भी काट डाले। अब वह मुँह खोल कर राम की तरफ दौड़ा। राम ने बाणों से उसका मुँह भर दिया। अंत में एक बाण से कुंभकर्ण का सिर धड़ से अलग हो गया। उसका विशाल धड़ समुद्र में गिर पड़ा। कुंभकर्ण के मरने से देवता, ऋषि आदि ने भी खुशियाँ मनाया।

त्रिशिरा, देवांतक, नरान्तक, अतिकाय आदि राक्षस सेनापति की युद्ध में पराजय और मृत्यु

कुंभकर्ण के वध का समाचार सुनकर रावण बहुत दुखी हुआ। वह विलाप करने लगा। इस पर त्रिशिरा आदि ने उसे ढांढास बँधाया। उन्होने उसे उसकी शक्ति का भरोसा दिलाया। त्रिशिरा, देवांतक, नरान्तक और अतिकाय उत्साह से युद्ध के लिए तैयार हो गए। ये सब रावण का आशीर्वाद लेकर एक बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध भूमि के लिए चले।

लेकिन युद्ध में अंगद ने नरान्तक को, हनुमान ने देवांतक और त्रिशिरा को, नील ने महोदर को और ऋषभ ने महापार्श्व को मार डाला। अतिकाय को लक्ष्मण ने मारा। राक्षस सेना का भी महाविनाश हुआ।

राक्षस सेना की पराजय पर रावण की प्रतिक्रिया

कुंभकर्ण, जिसकी शक्ति पर रावण को बहुत भरोसा था। वह भी मारा जा चुका था। उसके लगभग सभी बड़े सेनापति मारे जा चुके थे। इन सब के मारे जाने के समाचार से रावण की चिंता और बढ़ गई। उसने नगर की रक्षा के लिए प्रबंध को और बढ़ाया। अशोक वाटिका में आने-जाने वालों पर और सख्त नजर रखी जाने लगी। उसने राक्षसों को सावधान रहने के लिए अनेक सलाह दिया।

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लंका में चिंता और घबड़ाहट फैल गई। रावण जिस युद्ध को आसानी से जीतने वाला मान रहा था, उसमें उसका लगभग सर्वनाश हो गया था। मेघनाद ही उसका आखिरी सहारा बचा था अब। इधर राक्षसों में निराशा से मेघनाद भी परेशान था। अतः उसे फिर से युद्ध में भेजने का निश्चय हुआ।

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