भीष्म वास्तव में ध्यौ नामक वसु थे। वे ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण उन्हें मनुष्य लोक में दीर्घ काल तक रहना पड़ा और उन्हें कोई संतान नहीं हुआ। इसका कारण बना उनकी सौतेली माता सत्यवती के पिता दशराज को दिया गया उनका अखंड ब्रह्मचर्य का वचन। इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत या गंगादत्त भीष्म कहलाए। देवनदी गंगा ने उनकी माता बनाने का वचन देते समय ध्यौ को छोड़ कर अन्य सभी वसुओं को जन्म के तत्काल बाद मृत्यु देकर शाप से मुक्त करने के वचन पहले ही दे रखा था। शांतनु को गंगा द्वारा उनके प्रतिकूल आचरण का ब्रह्मा जी का शाप भी था। इन्हीं सब कारणों से भीष्म के सभी भाइयों को उनकी माता गंगा ने ही मार डाला। इस कारण भीष्म का कोई सगा भाई जीवित नहीं था। यह कहानी इस प्रकार है।
शांतनु के पुत्रों की गंगा जी द्वारा हत्या
अपने पिता प्रतीप और गंगा को दिए गए वचन के कारण राजा शांतनु ने गंगा से उनके विषय में कुछ पूछे और जाने बिना ही विवाह कर लिया था। उन्होने यह वचन भी दिया था कि वह गंगा के किसी कार्य या बात के लिए उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछेंगे। अगर वह ऐसा करते तब गंगा उन्हें छोड़ कर चली जाती।
इस शर्त के अनुसार शांतनु-गंगा का विवाह हुआ। समय आने पर इस युगल को आठ पुत्र हुए। लेकिन जब पुत्र उत्पन्न होता तब तुरंत ही गंगा जी उसे अपने जल में डाल देती और कहती कि “वत्स! मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूँ।” वास्तव में वह तुरंत मृत्यु देकर वसु गणों को दिए गए वचन के अनुसार उन्हें शाप से मुक्त कर रही थीं।
लेकिन पत्नी का यह कार्य शांतनु को बहुत बुरा लगता। वह दुखी होते। लेकिन गंगा और अपने पिता को दिए गए वचन के कारण चुप रह जाते थे।
भीष्म का जन्म
जब आठवाँ पुत्र हुआ और वह पुनः उसे लेकर गंगाजी की धारा की तरफ बढ़ीं तब शांतनु से नहीं रहा गया। अपने पुत्र के प्राण बचाने के लिए दुखी होकर बोले “अरी! इस बालक का वध न कर, तू किसकी कन्या है? क्यों अपने ही पुत्रों को मार डालती है? पुत्र-घातिनी! तुम्हें पुत्रहत्या का यह अत्यंत निंदित और भारी पाप लगा है।”
राजा शांतनु द्वारा उनसे इस प्रकार पूछने और कटु वचन कहने पर गंगा जी बोली “मैं तुम्हारे इस पुत्र को नहीं मारूँगी। लेकिन शर्त के अनुसार मेरे यहाँ रहने का समय अब समाप्त हो चुका है। मैं जहनु की पुत्री और महर्षियों द्वारा सेवित नदी गंगा हूँ। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे साथ रह रही थी। ये तुम्हारे आठ पुत्र महातेजस्वी महाभाग देवता वसु हैं। ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण ये मनुष्य योनि में आए थे। तुम्हारे सिवा दूसरा ऐसा कोई राजा नहीं है, जो उनका पिता बन सके न ही मेरी जैसी कोई मानवी है जो उनकी माता बन सके, अतः इन वसुओं की माता बनने के लिए मैं मानवी शरीर धारण कर आई थी। वसुओं को दिए गए वचन के अनुसार उनकी शीघ्र मुक्ति के लिए मैंने उन सब को जन्म लेते ही मार डाला था।”
गंगा द्वारा शांतनु को भीष्म के विषय में बताना
अपने विषय में ये सब बताने के बाद गंगा बोली “अब तुम अपने इस आठवें पुत्र का पालन करो। तुम्हारा यह पुत्र सभी वसुओं के एक-एक अंश से तुम्हारे कुल का आनंद बढ़ाने के लिए प्रकट हुआ है। इसलिए यह बल और पराक्रम में दूसरों से बढ़ कर होगा। मैंने तुम्हारे लिए वसुओं से आग्रह किया था कि तुम्हारा एक पुत्र जीवित रहे। इसलिए इसे मेरा बालक समझना और उसका नाम ‘गंगादत्त’ रखना।”
शांतनु के पूछने पर गंगा जी ने वसुओं के शाप की कथा विस्तार से उन्हें सुनाया। उन्होने यह भी बताया कि ऋषि के कथन के अनुसार सभी वसु तो शीघ्र ही मनुष्य लोक से शाप मुक्त होकर लौट गए लेकिन यह आठवाँ पुत्र द्यौ नामक वसु था जिसे दीर्घकाल तक पृथ्वी पर रहना था।
गंगा जी द्वारा शांतनु का परित्याग
यह सारी बात बता कर गंगा जी नवजात पुत्र को लेकर अन्तर्धान हो गईं। राजा शांतनु दुखी होकर अपनी राजधानी में लौट आए और पहले की तरह ही धर्मानुसार शासन कार्य करते रहे।
भीष्म का पालन-पोषण
इधर वह बालक गंगादत्त गंगा जी के पास रह कर ही पलने लगा।
यद्यपि वह द्यौ नामक वसु था लेकिन अन्य वसुओं ने अपना एक-एक अंश उसमें दे दिया था इसलिए वह गुणों में उन सबसे बढ़ कर हुआ। उस बालक का नाम आगे चलकर देवव्रत रखा गया। गंगा पुत्र होने के कारण वह गांगेय भी कहा जाता था।
शांतनु का अपने पुत्र से पुनर्मिलन
एक दिन राजा शांतनु शिकार करते हुए गंगा तट पर घूम रहे थे तो उन्होने देखा कि गंगा नदी में बहुत कम जल रह गया था। यह देख चिंतातुर राजा इसका कारण पता करने के उद्देश्य से आगे बढ़े तो उन्होने एक सुंदर किशोर को दिव्य अस्त्रों का अभ्यास करते हुए देखा। उस बालक ने अभ्यास करते हुए गंगा नदी के जल को बाणों की दीवार बना कर रोक दिया था। बालक का यह अलौकिक कार्य देख कर राजा को आश्चर्य हुआ। चूँकि राजा ने अपने पुत्र को तभी देखा था जब वह नवजात शिशु था, इसलिए इस समय वह पहचान नहीं सकें। लेकिन जब वह बालक वहाँ से अन्तर्धान हो गया तो उन्हें संदेह हुआ।
उन्होने गंगा से अपने पुत्र को दिखाने के लिए कहा। राजा के अनुरोध पर गंगा नारी रूप में प्रकट हुईं। उन्होने अपने पुत्र का दाहिना हाथ पकड़ रखा था। उन्होने कहा “यह आपका ही पुत्र है। मैंने इसे पाल-पोस कर बड़ा कर दिया है। अब आप अपने इस पुत्र को ग्रहण कीजिए और अपने साथ ले जाइए। आपका यह पुत्र महर्षि वशिष्ठ से छह अंगों सहित समस्त वेदों का अध्ययन कर चुका है, महर्षि परशुराम, असुर गुरु शुक्राचार्य एवं देव गुरु बृहस्पति जिन शास्त्रों को जानते हैं, उसका भी यह ज्ञाता है, यह अस्त्र विद्या का पंडित है, महान धनुर्धर और इन्द्र के समान पराक्रमी है। यह राजधर्म और अर्थशास्त्र का महान पंडित है।”
इतना कह कर गंगा जी अन्तर्धान हो गईं। उनकी आज्ञा के अनुसार शांतनु अपने उस पुत्र को लेकर राजधानी आ गए। पुत्र देवव्रत समस्त गुणों से सम्पन्न होने के साथ-साथ पिता का बहुत आदर करता था और उनकी आज्ञा का पालन करता था। पुत्र को पाने से राजा भी बहुत प्रसन्न थे।