अप्सरा कौन होती हैं?

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ऋषि विश्वामित्र की तपस्या से जब इन्द्र को घबराहट हुई तो उन्होने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा मेनका को भेजा। यहाँ तक कि भगवान शिव को समाधि से जगाने के लिए इन्द्र के भेजने पर कामदेव अपने साथियों अप्सराओं और गन्धर्वों के साथ जाते हैं। हालांकि शिव की तीसरी आँख के क्रोध से वे जल कर भस्म हो जाते हैं। धरती के राजा पुरुरवा को स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से प्रेम हो गया था। महाभारत के कई मुख्य पात्रों, जैसे द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि को किसी न किसी अप्सरा से उत्पन्न बताया गया है। अप्सराओं से संबन्धित ऐसी कई कहानियाँ हमारे प्राचीन ग्रन्थों में आती हैं।

तो कौन थी ये अप्सराएँ? इन कहानियों के आधार पर कई लोगों की धारणा है कि स्वर्ग में ये एक तरह से स्वतंत्र वेश्याओं की तरह थीं, जो कि खाली टाइम में इन्द्र के दरबार में नाचती थी और जब किसी की तपस्या से इन्द्र को खतरा होता तो उनके आदेश से उनको मोहित करने पहुँच जाया करती थीं। ये स्वेच्छाचारी तरीके से प्रेम करती थीं। पर उनके प्रेम पर भी इन्द्र रोक लगा सकते थे। इंटरनेट पर तो यहाँ तक कहा जा रहा है कि जो लोग स्वर्ग में जाते हैं उन्हें मस्ती के लिए बहुत सी अप्सराएँ मिलती हैं। इसके लिए महाभारत के शांतिपर्व के एक श्लोक को उद्धृत किया जाता है। ये सभी बातें गलत और संदर्भ से अलग अनुवाद और संभवतः दूसरे संस्कृतियों के प्रभाव के कारण कही जाती हैं। वास्तव में अप्सरा की कल्पना परी और हूर से बिल्कुल ही अलग है।

अप्सरा की संकल्पना को समझने के लिए सबसे पहले इस शब्द को समझना होगा। हालांकि अप्सरा की ज्यादत्तर कहानियाँ पुराणों और महाभारत जैसे ग्रन्थों में मिलती है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग वेद में ही है। प्रारम्भिक वैदिक शब्द था ‘अपसरस:’ या ‘अप्सरस:’। इसका शाब्दिक अर्थ हुआ जल से निकला हुआ। जल के लिए ‘रस’ शब्द का भी प्रयोग हुआ है क्योंकि सभी रस जल से ही बनते हैं। इसी से ‘सरस्वती’ शब्द निकला है। रस का आशय ‘तत्व’ से भी लिया जाता है। अप्सराओं का जल से संबंध पुराणों में भी रहा है। एक कथा के अनुसार ‘रंभा’ नामक अप्सरा समुद्र मंथन से निकली थी। कुछ पुराणों के अनुसार केवल एक अप्सरा नहीं बल्कि बहुत सी अप्सराएँ समुद्र मंथन से निकली थी। यानि अप्सराओं की उत्पत्ति जल से हुई थी। अप्सराओं के फेवेरेट टाइम पास जल क्रीडा यानि सरोवरों में खेलना था।

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किसी शब्द के अर्थ को हम उसके संदर्भ से ही ठीक से समझ सकते हैं। जब भी हम अप्सरा की बात करते हैं तब वहाँ एक शब्द और आता है ‘गंधर्व’। ‘गंधर्व’ शब्द ‘गंध’ से बना है। गंध को पृथ्वी तत्त्व कहा जाता है। गंधर्व और अप्सरा को पति-पत्नी कहा गया है। कहीं-कहीं इन दोनों की देवताओं की तरह स्तुति की गई है जबकि कहीं इन्हें ऐसी बुराई बताया गया है जो मनुष्य का नाश कर देता है। इसलिए इनसे दूर रहने के लिए कहा गया है।

क्या अर्थ है इसका? हमारे प्राचीन ग्रन्थों में अपनी बातों को कहने का एक अलग तरीका था। तरीका यह था कि हम विचार को, गुणों को, एक व्यक्ति के रूप में बताते थे, उसका व्यक्तिकरण कर देते थे। ताकि विचार का छवि बन सके और हम उसे अच्छे से और आसानी से समझ सकें और याद रख सकें। इसे उपमा भी समझा जा सकता है। विचार महत्त्वपूर्ण होते थे लिंग ने। उदाहरण के लिए सूर्य जब सुबह और शाम को अपने सौम्य और सुंदर रूप में होता है तब वह उषा, सविता और संध्या होता है जो कि स्त्री है। लेकिन जब दोपहर में पूरी तपिश के साथ होता है तो सूर्य और भास्कर होता है।

अब हम फिर आते हैं गंधर्व और अप्सरा पर। गंधर्व गंध यानि पृथ्वी तत्त्व है और अप्सरा जल या रस तत्त्व। ये दोनों साथ रहते हैं और पति-पत्नी हैं। वास्तव में गंधर्व प्रतिनिधित्व करते हैं हमारे इंद्रिय को। इससे होने वाली जो अनुभूति है वह अप्सरा है। जैसे कि हमारी त्वचा। यह स्पर्श को अनुभव करता है। त्वचा गंधर्व है और स्पर्श की अनुभूति अप्सरा है। आँखें गंधर्व हैं लेकिन उससे सुंदर चीजों को देखने से जो आनंद की अनुभूति होती है, जो रस मिलता है, वह अप्सरा है। इसलिए कहा गया है कि गंधर्व वादन करते हैं, यानि बजाते हैं, गाते हैं और अप्सरा उस पर नाचती हैं। गंधर्व यानि हमारी इंद्रिय पति यानि स्वामी है। वह पुरुष तत्व है। वह बहुत सुंदर है। उसे होने वाली अनुभूति कोमल और आनंद देने वाली होती है। यह अनुभूति ही व्यक्ति को उसे और पाने की लालसा बढ़ा देता है। इस आनंद की, इस अनुभूति की, कल्पना एक सुंदर युवती के रूप में की गई है। इंद्रिय और अनुभूति एक युगल है, वे हमेशा साथ रहते हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रह सकता।

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अब गंधर्व और अप्सरा का स्वर्ग से क्या संबंध है? वास्तव में स्वर्ग भोगों की जगह है। यहाँ हर वह चीज है जिसकी चाहत हमारे इंद्रियों को होती है। वास्तव में ये हमारी मौलिक जरूरत होती हैं। जब व्यक्ति जन्म लेता है तो सबसे पहले वह भूख और भय से रक्षा चाहता है। उसके बाद इन इंद्रिय जनित जरूरतों को ही पूरा करना चाहता है। जब उसका मानसिक स्तर इससे आगे बढ़ जाता है तब वह आत्मिक और आध्यात्मिक बातों पर ध्यान देता है। इसलिए स्वर्ग एक ऐसी जगह है जहां भूख नहीं लगती, भय नहीं लगता। इंद्रिय सुख के सभी साधन होते हैं वहाँ। इसलिए इसके राजा का नाम ही है इन्द्र। लेकिन स्वर्ग के राजा को भी एक भय होता है। भय है इन सुखों और समृद्धि के छिन जाने का। स्वर्ग का राजा होकर भी वह हमेशा डरा रहता है। अगर कोई तपस्या करता है तो उसे सबसे पहले अपने सिंहासन जाने का ही भय होता है।

स्वर्ग कर्म फल का स्थान भी है। जिसने अच्छे कर्म किए वह तब तक वहाँ रहेगा जब तक उसके अच्छे कर्म इसकी इजाजत देंगे, फिर वह वहाँ से नीचे गिर कर धरती पर आ जाएगा। यानि इंद्रिय सुख से वंचित हो जाएगा।

इसका अर्थ हुआ स्वर्ग एक अस्थायी जगह है। सुखों के छिन जाने के भय का जगह है। इसलिए धर्म स्वर्ग, यानि सुख नहीं बल्कि इसकी कामना से मुक्ति की बात करता है जिसे कहते हैं मोक्ष। अंतिम लक्ष्य स्वर्ग नहीं बल्कि हमेशा मोक्ष माना गया है। इंद्रिय और इंद्रिय सुख यानि गंधर्व और अप्सरा का स्थान स्वर्ग है। लेकिन धर्म इससे आगे के यात्रा की बात करता है।

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वेदों के इसी विचार को पुराणों में कहानियों के माध्यम से रखा गया है। किसी भी कहानी में अप्सरा किसी के साथ हमेशा नहीं रही। वह सबको छोड़ कर एक न एक दिन चली ही जाती है। इस रूपक यानि मेटाफोर को कुछ लोग शब्दशः लेने लगे। एक सुंदर युवती जो लोगों को अपनी कामुकता से लुभाती है, पति को छोड़ कर चली जाती है, कई लोगों के साथ रहती है। इसलिए यह तो स्वर्ग की वेश्या की तरह हुई। लेकिन यह व्याख्या गलत है। यह व्याख्या इस आधार पर भी गलत लगती है कि वेदों में गन्धर्व को अप्सरा का पति कहा गया है। रामायण के अनुसार रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर की बहू के साथ जबर्दस्ती की थी जिस कारण उसे ब्रह्मा जी ने शाप दिया था। वह रावण से कहती भी है कि मैं कुबेर की बहू हूँ। तो जो किसी की पत्नी हो, किसी की बहू हो, वेश्या कैसे हो सकती है?

इसी तरह महाभारत के एक श्लोक के गलत अनुवाद के आधार पर कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग अच्छे कर्म करते हैं उन्हें स्वर्ग में बहुत सी अप्सराएँ आनंद के लिए मिलेंगी। लेकिन इस श्लोक का अर्थ केवल इतना है जो वीर युद्ध भूमि में मरते हैं स्वर्ग में अप्सराएँ उनके लिए लालायित रहती हैं। मिलती हैं, यह नहीं कहा गया है।                   

पर यह भी याद रखने चाहिए कि गंधर्व और अप्सरा देवता हैं तो दूसरी तरह अमर्यादित होने पर नाश भी कर सकते हैं। अर्थात यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों है। यही मौलिक अंतर है अप्सरा में और परी एवं हूर में।

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