पांडवों के परदादा शांतनु की कहानी-part 3

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हस्तिनापुर का कुरु वंश

कुरु वंश की वंशावली पुराणों में ब्रह्मा जी से शुरू की गई है। ब्रह्मा के पुत्र अत्री, अत्री के चंद्रमा, चंद्रमा के बुध, बुध के पुरुरवा और पुरुरवा के पुत्र आयु हुए। आयु के पुत्र नहुष, नहुष के ययाति, ययाति के पुरू हुए। भरत पुरू के ही वंश में हुए थे। भरत के वंशज राजा कुरु हुए।  

दुष्यंत के पुत्र भरत– भूमन्यु- सुहोत्र- अजमीढ़– सुहोत्र- अजमीढ़- ऋक्ष- संवरण- कुरु– अश्ववान (अविक्षित)- जनमेजय- धृतराष्ट्र- प्रतीप- शांतनु (शांतनु के दो भाई और थे। बड़े भाई देवापि तपस्या के लिए वन में चले गए थे। इसलिए शांतनु और बाह्लिक ने राज्य प्राप्त किया)- देवव्रत (भीष्म), चित्रांगद, विचित्रवीर्य (चूंकि देवव्रत ने सिंहासन नहीं लेने का प्रण लिया था इसलिए क्रमशः चित्रांगद और विचित्रवीर्य राजा बने लेकिन ये दोनों भाई बिना उत्तराधिकारी छोड़े ही मर गए)- धृतराष्ट्र, पांडु (धृतराष्ट्र बड़े थे लेकिन दृष्टिहीन होने के कारण छोटे भाई पांडु राजा बने। पांडु द्वारा सिंहासन त्याग के बाद पुनः धृतराष्ट्र राजा बने लेकिन वास्तविक शक्ति उनके बेटे दुर्योधन के हाथों में थी।     

शाप के कारण कुरु वंश में शांतनु का जन्म

कुरु वंश में शांतनु का जन्म एक शाप के कारण हुआ था। शांतनु पूर्व जन्म में महाभिष नामक एक परम प्रतापी और धर्मपारायण राजा थे। उस समय उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। अपने पुण्यकर्मों के कारण मृत्यु के बाद महाभिष को स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई और सभी देवताओं का उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ।

महाभिष को ब्रह्मा जी का शाप

एक बार जब वे ब्रह्मा जी की सभा में अन्य अनेक देवताओं और राजर्षियों आदि के साथ बैठे थे, उसी समय देवनदी गंगा ब्रह्मा जी के पास आयीं। तभी वायु के झोंके से गंगा जी का वस्त्र ऊपर की ओर उठ गया। उपस्थित अन्य लोगों ने अपनी आँखें झुका लीं लेकिन महाभिष ने ऐसा नहीं किया और निःशंक होकर देवनदी की ओर देखते ही रहे। उनकी यह अशिष्टता ब्रह्मा जी को बुरी लगी और उन्होने शाप दे दिया “तुम मनुष्य लोक में जन्म लेकर फिर पुण्यलोक में आओगे। जिस गंगा ने यहाँ तुम्हारे चित्त को चुरा लिया है, वही मनुष्यलोक में तुम्हारे प्रतिकूल आचरण करेगी। जब तुम्हें गंगा पर क्रोध आ जाएगा तब तुम शाप से मुक्त हो जाओगे।”

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महाभिष ने जब देखा कि उन्हें फिर मनुष्यलोक में जाना है तब उन्होने निश्चय किया कि वे मनुष्यलोक में कुरु वंश के महातेजस्वी राजा प्रतीप के पुत्र बन कर जन्म लेंगे।

शाप के कारण कुरु वंश में भीष्म का जन्म

जैसे परम सत्यनिष्ठ राजा महाभिष को शापवश मनुष्य के रूप में शांतनु के रूप में जन्म लेना पड़ा वैसे ही आठ वसुगणों को एक शाप के कारण ही देवलोक से च्युत होकर मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ा। सात वसु तो जन्म के तुरंत ही इस शरीर से मुक्त हो गए लेकिन आठवें वसु को लंबे समय तक धरती पर रहना पड़ा। वह आठवाँ वसु ही भीष्म थे।   

वसुगणों को शाप

धरती पर वशिष्ठ ऋषि एक दिन वृक्षों की आड़ में संध्योपासन कर रहे थे तब अष्ट यानि आठ वसुओं  ने उनकी गाय के अपहरण का प्रयास किया। इससे क्रोधित होकर ऋषि वशिष्ठ ने उन सब को मनुष्य शरीर धारण करने का शाप दे दिया। लेकिन क्षमा याचना करने पर कहा कि “यद्यपि मैंने तुम सभी वसुओं को शाप दे दिया है। किन्तु तुम सब प्रतिवर्ष एक-एक करके शाप से मुक्त हो जाओगे। पर द्यौ नामक वसु जिसके कारण तुम सब को शाप मिला है, को मनुष्य लोक में दीर्घकाल तक रहना होगा।” द्यौ वसु के उकसाने पर ही सभी वसु ऋषि की गाय चुराने के लिए गए थे।

गंगा जी द्वारा वसुओं का माता बनाना स्वीकार करना  

देवनदी गंगा के समक्ष ही ब्रह्मा जी ने महाभिष को शाप दिया था। इस समस्त घटनाक्रम को देख कर खिन्न होकर लौट रही थी। रास्ते में वह राजा महाभिष द्वारा धैर्य खोने के विषय में चिंतन करती हुई जब जा रही थीं। तभी रास्ते में ही उन्हें वसु देवतागण दिखें। वसु गणों का शरीर स्वर्ग से नीचे गिर रहा था और उनके चेहरे कांतिहीन हो रहे थे।

गंगा जी के पूछने पर उनलोगों ने वशिष्ठ ऋषि के शाप के विषय में बताया। चूँकि ऋषि का शाप टाला नहीं जा सकता था। इसलिए सभी वसुओं ने गंगा जी से पृथ्वी पर मानव-पत्नी बन कर अपनी माता बनने का आग्रह किया ताकि उन्हें किसी मानव स्त्री के गर्भ में नहीं रहना पड़े।

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गंगा जी ने उनके पृथ्वी लोक पर होने वाले पिता के लिए पूछा तो वे बोले “राजा प्रतीक के पुत्र शांतनु लोक विख्यात साधु पुरुष होंगे, पृथ्वी लोक में वही हमारे पिता होंगे।” उन वसुओं ने गंगा जी से यह भी आग्रह किया कि “जन्म लेते ही तुम हमें जल में फेंक देना ताकि मृत्यु लोक से हमें शीघ्र ही छुटकारा मिल जाय।” गंगा जी इसके लिए तैयार हो गईं लेकिन उन्होने पूछा कि अगर वे उनके पिता के सभी पुत्रों को मार डालेंगी तो पिता के लिए कोई पुत्र नहीं बचेगा, जो कि उचित नहीं होगा। इस पर वसुगण ने कहा कि वे सभी गंगा और उस राजा (शांतनु) के एक पुत्र को अपने तेज का एक-एक अंश देंगे, जिससे एक ऐसा पुत्र होगा जो परम पराक्रमी और राजा की इच्छा के अनुरूप होगा किन्तु उस पुत्र की पृथ्वी लोक में कोई संतान नहीं होगी।”

यही ध्यौ वसु बाद में धरती पर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सभी वसुओं की शक्ति के कारण उनका पराक्रम और ज्ञान अद्भुत था। पिता से उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था। 

गंगा जी और वसुगणों के मध्य इस तरह की सहमति के बाद सब ने प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया।

राजा प्रतीप का गंगा जी को वचन

समय आने पर पृथ्वी पर भरत वंश में राजा प्रतीप का राज्य हुआ। वे परम प्रतापी, प्रजा का कल्याण के लिए सदैव तत्पर और धर्मस्थित थे। एक बार वे गंगाद्वार (हरिद्वार) में एक आसन पर बैठ कर बहुत वर्षों तक जप करते रहें। देवनदी गंगा ने जान लिया कि अब महाभिष और वसुगणों के मनुष्य रूप में जन्म लेने का समय आ गया है। अतः वे एक सुंदर युवती का रूप धारण कर तपस्यारत राजा प्रतीप के दाहिनी जाँघ पर जा बैठीं। राजा की परीक्षा लेने के लिए उन्होने काम-प्रस्ताव रखा। लेकिन राजा ने इसे धर्म विरुद्ध बताते हुए अस्वीकार कर कहा कि वे उसे अपने पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।

वास्तव में शास्त्रों के अनुसार पुरुष के शरीर का बाया हिस्सा पत्नी या प्रेयसी का होता है, लेकिन गंगा जी दाहिनी जाँघ पर बैठी थी। धर्म मर्मज्ञ राजा समझ गए कि वह उनसे वास्तव में कोई अन्य संबंध चाहती थी। गंगा जी उनके धर्मयुक्त विचार और अपनी भक्ति देख कर प्रसन्न हुईं और उनकी पुत्रवधू बन कर भरत वंश का सेवन करने का वचन दे दीं।

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लेकिन उन्होने एक शर्त रखते हुए कहा कि “मैं एक शर्त पर आपके पुत्र से विवाह करूंगी। मैं जो कुछ भी आचरण करूँ, वह सब आपके पुत्र को स्वीकार होना चाहिए।” राजा समझ गए थे कि वह कोई साधारण स्त्री नहीं बल्कि कोई दिव्य स्त्री है। इसलिए उनकी शर्त को उन्होने मान लिया।

शांतनु का जन्म

समय आने पर राजा प्रतीप की महारानी कुक्षि ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जो शांत पिता की संतान होने के कारण शांतनु कहलाएँ। यह शांतनु वास्तव में राजा महाभिष थे जो शापवश पृथ्वीलोक में मनुष्य बन कर आए थे। शांतनु प्रजाहितैषी, धर्मस्थित, पराक्रमी और धनुर्वेद के ज्ञाता तो थे ही, अन्य सभी वेदों के ज्ञाता और एक उत्कृष्ट वक्ता भी थे।

शांतनु का राज्याअभिषेक

शातनु जब युवा हुए तो उनके पिता राजा प्रतीप ने उनसे गंगा के तट पर हरिद्वार में मिली दिव्य स्त्री और उनको दिए वचन के विषय में बताया। साथ ही यह भी आदेश दिया कि अगर वह दिव्य स्त्री उन्हें एकांत में मिले और प्रणय निवेदन करे तो उससे उसका परिचय आदि पूछे बिना ही उसका निवेदन स्वीकार कर लें और अगर वह स्त्री उनसे विवाह करना चाहे तो पिता की आज्ञा समझ कर उससे विवाह कर ले। उन्होने अपने पुत्र को उस स्त्री के किसी कार्य के विषय में कुछ पूछताछ करने के लिए भी मना किया।

ये सब बताने के बाद राजा प्रतीप ने उसी समय शांतनु का राजपद पर अभिषेक कर दिया और स्वयं तपस्या के लिए वन में चले गए।

महाराज शांतनु का गंगा जी से विवाह

एक दिन राजा शांतनु शिकार करते हुए गंगा तट के वन में अकेले ही घूम रहे थे। वहीं उन्हें एक परम दिव्य सुंदरी स्त्री मिली। उन्होने उस स्त्री से विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे वह मान गई। लेकिन साथ ही एक शर्त भी रखी कि “मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूँ उसके लिए आप मुझे रोकेंगे नहीं और मुझ से कभी अप्रिय वचन नहीं कहेंगे।” इस शर्त का उल्लंघन होने पर वह स्त्री (गंगा) शांतनु का साथ छोड़ देतीं।     

राजा शांतनु ने इस शर्त को मान लिया क्योंकि इनके पिता की ऐसी ही आज्ञा थी। दोनों का विवाह हो गया। राजा उस स्त्री का गंगा होना नहीं जानते थे, पिता की आज्ञा के अनुसार उन्होने उसके नाम, कुल आदि के संबंध में कोई प्रश्न नहीं किया था।

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