छोटे होने के बावजूद हस्तिनापुर के सिंहासन पर पहले पांडु बैठे क्योंकि उनके बड़े भाई धृतराष्ट्र जन्म से दृष्टिहीन थे। अपने वंश की कीर्ति के अनुरूप ही महाराज पांडु परम पराक्रमी, विजेता, प्रजापालक और धर्मनिष्ठ थे। वे अपनी दादी सत्यवती, चाचा भीष्म, सौतेली माता अंबिका, माता अंबालिका आदि का आदर-सत्कार करते और समय-समय पर उनकी सलाह लिया करते थे।
राजा पाण्डु का दिग्विजय
राजा पाण्डु ने तीस रात तक राजधानी से बाहर जाकर दिग्विजय करने का निश्चय किया। वे बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेकर और मंगलाचार आदि मांगलिक विदाई लेकर राजधानी से विशाल सेना के साथ निकले।
पाण्डु ने सबसे पहले पूर्व के अपराधी दशार्ण गणों पर आक्रमण कर उन्हें युद्ध में परास्त किया। तत्पश्चात मगध पर आक्रमण किया। इस युद्ध में आततायी मगध नरेश दीर्घ मारा गया। इसके बाद क्रमशः मिथिला, काशी, सुहय, और पुंड्र देश को जीता। इन सभी को उन्होने परास्त कर हस्तिनापुर के कुरु वंशी शासक की आज्ञा पालन के लिए विवश कर दिया (पराजय स्वीकार करने वाले राजाओं को मारा नहीं)।
इस तरह दिग्विजय प्राप्त कर राजाओं द्वारा दिए गए (लूटे गए नहीं) संपत्ति के साथ पाण्डु अपनी राजधानी लौट आए। लाए गए धन को भी केवल राजकोष में रखने या अपने पास रखने के बदले पाण्डु ने अपने बड़े भाई धृष्टराष्ट्र की आज्ञा से संबंधियों एवं अनुचरों आदि को उदारता के साथ भेंट दिया।
उनका यह दिग्विजय पराक्रमी एवं वीर कुरु वंश के फिर से उस पराक्रम को प्राप्त कर लेने की घोषणा थी जिसके लिए उनके पूर्वजों की ख्याति थी। पूर्वजों की तरह उनका दिग्विजय भी धर्म की रक्षा करते हुए किया गया था। युद्ध में भी किसी की अन्यायपूर्वक या किसी निर्दोष व्यक्ति को नहीं मारा गया था।
पांडु और धृतराष्ट्र के संबंध
पांडु का अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र के प्रति बहुत स्नेह था और अपनी हर उपलब्धि में पहला हिस्सा वे उन्हें ही देते थे। वे इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि उनके भाई को किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने पाए। उन्हें राजाओं वाली सभी सुख-सुविधा दिया गया था। हर काम वे बड़े भाई की आज्ञा लेकर ही करते थे।
वीर पाण्डु के पराक्रम से उनके बड़े भाई धृतराष्ट्र ने बड़े-बड़े सौ यज्ञ किए और प्रत्येक यज्ञ में एक-एक लाख स्वर्ण मुद्राओं की दक्षिणा दी।