श्रीकृष्ण का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना
वस्त्र हरण के समय कात्यायनी देवी के व्रत का फल देने के लिए कृष्ण ने गोपियों को एक रात में रमण करने का वचन दिया था। शरद पूर्णिमा की रात्री को यह वचन पूरा करने का अवसर आया। कृष्ण के बांसुरी की धुन पर सभी गोपियाँ उनके पास यमुना के तट पर पहुँच गईं। यहाँ गोपियाँ को कृष्ण से सम्मान मिलने पर अभिमान हो गया। इसी कारण कृष्ण उनके बीच से लुप्त हो गए। उन्हें अपने बीच नहीं पाकर सभी गोपियाँ कुछ दूर तक उन्हें ढूंढते गईं पर बाद में यमुना तट पर बैठ कर उनके लीलाओं का आपस में ही गान करने लगीं। कृष्ण प्रेम में वे सब कृष्णमय हो गई। उनकी दशा देख कर कृष्ण पुनः उनके बीच प्रकट हुए और उन्हें सांत्वना दिया।
गोपियों के करूण विलाप और प्रलाप से श्रीकृष्ण द्रवित हो गए और उनके बीच फिर से प्रकट हो गए। उनको देखते ही सभी गोपियों को लगा जैसे मृत शरीर में प्राण आ गए हो, दिव्य स्फूर्ति आ गई हो। सभी तीव्रता से उठ खड़ी हुईं।
गोपियों ने उनसे पूछा “कुछ लोग तो ऐसे होते है, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम नहीं करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते हैं। तुम्हें तीनों में से कौन सा अच्छा लगता है?”
श्रीकृष्ण ने कहा “प्रेम करने पर प्रेम करना स्वार्थ और लेनदेन मात्र है। लेकिन जो लोग प्रेम नहीं करने वालों से भी प्रेम करते है, जैसे करुणशील सज्जन और मातापिता, उनका हृदय सौहर्द्र और हितैषिता से भरा होता है। तुमलोगों ने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन बेड़ियों को भी तोड़ दिया है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी और यति भी नहीं तोड़ पाते हैं।
मुझ से तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है। मैं अमर शरीर से– अमर जीवन से अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ, तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ।
महारास लीला
श्रीकृष्ण के सानिध्य और उनकी इस प्रेमभरी बातों से गोपियों का मन प्रफुल्लित और मनोरथ सफल हो गया। सभी गोपियाँ एक-दूसरे की बाँहों-में-बाँह डाले यमुना के तट पर खड़ी थीं। श्रीकृष्ण ने अपनी महारास लीला आरंभ की।
वे दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गए और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक कृष्ण यह क्रम बन गया। सभी गोपियाँ श्रीकृष्ण को अपने ही पास अनुभव करती थीं। इस तरह वे नृत्य करने लगें।
असंख्य गोपियों और कृष्ण का इस तरह नृत्य अद्भुत छवि बना रहा था। उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पाजेब और करधनी के घुंघरू एक साथ बज उठते थे। अधिक संख्या में होने के कारण यह ध्वनि अधिक होती थी। “बहुत-से श्रीकृष्ण साँवले-साँवले मेघ-मण्डल की तरह और उनके बीच मे चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली की तरह शोभायमान हो रही थीं।”
यमुनाजी के तट पर रमणरेती पर पूर्णिमा की खिली हुई चाँदनी में रास लीला का यह नृत्य इतना मनमोहक था कि इस दिव्य रासोत्सव के दर्शन की लालसा में देवतागण भी आकाश में अपनी पत्नियों से साथ आ पहुंचे। स्वर्ग की दिव्य दुदुंभियां अपने आप बज उठीं। स्वर्गीय फूलों की वर्षा होने लगी।
जब बहुत देर तक नृत्य करते-करते गोपियाँ थक गईं तब श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उनका चेहरा पोछा। इसके बाद श्रीकृष्ण थकान उतारने के लिए सभी गोपियों के साथ यमुना जल में उतर गए। जितनी गोपियाँ थी, श्रीकृष्ण उतने रूपों में प्रकट हो गए थे। इसलिए सभी गोपियाँ और कृष्ण ने एक-दूसरे पर जल फेंक कर बहुत देर तक जल में क्रीड़ा किया।
इसके बाद सभी कृष्ण और गोपियाँ यमुना तट पर स्थित उपवन में गए। उसमे तरह-तरह के सुंगंध वाले फूल खिले हुए थे। मंद-मंद वायु चल रही थी। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ उस वन में विचरण करने लगे।
महारास की वह रात्री ब्रह्मा जी की रात्री के बराबर की हो गई थी। जब ब्रह्ममुहूर्त (सुबह) आया तो इच्छा नहीं होने पर भी सभी गोपियाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा मान कर अपने घरों को चली गईं। ब्रजवासी गोपों ने उनपर दोषबुद्धि नहीं किया क्योंकि श्रीकृष्ण की योगमाया से मोहित होने के कारण वे ऐसे समझ रहे थे कि उनकी पत्नियाँ उनके पास ही है।
रास लीला और महारास लीला में अंतर
रात्री के प्रथम पहर में कृष्ण ने एक रूप में सभी गोपियों के साथ जो क्रीड़ा किया उसे रास लीला कहा जाता है। इसके बाद गोपियों का अभिमान तोड़ने के लिए वे वहाँ से अदृश्य हो गए। इसके बाद गोपियों के पश्चाप पर वे फिर से प्रकट हुए और गोपियों को सांत्वना देने के बाद फिर से उनके साथ नृत्य और क्रीड़ा आरंभ किया। इस बार जितनी गोपियाँ थी उतने रूपों में कृष्ण ने स्वयं को प्रकट कर लिया। इसे महारास कहा जाता है।