कुम्भ की विशाल भीड़ इस बात का स्वयं प्रमाण है कि लोगों में कुम्भ और संगम में स्नान को लेकर कितनी आस्था है। एक सामान्य मान्यता है कि इस स्नान से पुण्य मिलता है, पाप का नाश होता है, आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है। लेकिन हिन्दू धर्म का मूल हो कर्मफल का सिद्धान्त है यानि अपने अच्छे बुरे कर्म के परिणाम भुगतने से बचना संभव नहीं है। तो फिर स्नान से पाप मुक्ति! ये क्या है?
इन सारी चीजों के समझने के लिए हमें धर्म और पुण्य में अंतर को समझना होगा। कई बार हम शब्दों का असावधानी से प्रयोग कर देते हैं। कुम्भ जैसे आयोजन को हम धार्मिक आयोजन कह देते हैं। लेकिन जब भी ग्रन्थों में पढ़ते हैं तो हमे यही मिलता है कि गंगा स्नान से पुण्य मिलता है। यहाँ धर्म की बात नहीं होती।
धर्म क्या है?
धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है ‘धारण करना’। क्या धारण करना? साधारण शब्दों में कहें तो जो व्यवहार हमें अपने जीवन में करना चाहिए वह धर्म है। धर्म का अर्थ है जीवन जीने का तरीका। हमें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए। हमारा खाना-पीना, सोना-जागना, परिवार और समाज से व्यवहार इत्यादि सभी कुछ इसके अंदर समाहित होते हैं। इसीलिए हमे ऐसे शब्द और वाक्यांश (phrase) मिलते हैं- स्वामी का धर्म, सेवक का धर्म, पति का धर्म, पत्नी का धर्म, धर्म की गति अति सूक्ष्म है, राजा को धर्मानुसार शासन करना चाहिए, इत्यादि। सामाजिक रूप से जैसे होना चाहिए, उस प्रकार के विवाह जिसके साथ हुआ हो, वह धर्मपत्नी होती है। यमराज को धर्मराज कहा जाता है, जज को ‘धर्माधिकारी’ कहा जाता था, महाभारत का रचयिता अंतिम श्लोक में दुख प्रकट करता है कि लोग धर्म के अनुसार नहीं आचरण करते।
‘धर्म’ शब्द का उल्टा पाप नहीं होता है बल्कि इसके लिए शब्द आता है ‘अधर्म’। धर्मपत्नी के अलावा अगर किसी अन्य स्त्री से संतान हो तो उसे ‘अधर्मज संतान’ कहते हैं। अधर्म का ही अपभ्रंश रूप है ‘अधम’ जिसका अर्थ किसी को तिरस्कारपूर्ण तरीके से ‘नीच’ कहना, जैसे आजकल हमलोग ‘घटिया इंसान’ कह देते हैं। यानि ऐसा व्यक्ति जो धर्म के अनुसार आचरण नहीं करता। इसे गाली की तरह माना जाता है। संक्षेप में अधर्म का अर्थ है धर्म के अनुसार नहीं होना, जैसा होना चाहिए वैसे नहीं होना। अधर्म अगर सीमा से बढ़ जाए तो वह अपराध बन सकता है जिसके लिए उसे राजकीय दंड भी दिया जा सकता है।
पुण्य क्या है?
अपने दैनिक जीवन में अपने नियमित व्यवहार के अलावा भी एक सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उसके सदस्यों से कुछ विशेष काम करने की अपेक्षा की जाती है, इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है। उदाहरण के लिए, कुएं खुदवाना, प्याऊ बनवाना, धर्मशाला बनवाना आदि। इन्हें पुण्य का कार्य कहा जाता है। इसके लिए एक शब्द और आता है ‘कर्म’। धर्म-कर्म, कर्मकांड, जैसे शब्द इसी आशय से प्रयोग किया जाता है। व्रत करना, त्योहार मनाना, पवित्र नदियों में स्नान करना, तीर्थ यात्रा करना, मंदिर जाना, पूजा अर्चना करना, दान करना इत्यादि पुण्य के काम हैं, इन्हें करना चाहिए। इन्हें ‘कर्म’ यानि ‘करणीय कार्य’ भी कहा जाता है जो कि किया जाना चाहिए।
व्याकरण में भले ही पाप को पुण्य का उल्टा माना जाता हो, लेकिन आशय में ऐसा नहीं होता है। मंदिर जाना पुण्य का काम है लेकिन अगर मंदिर नहीं जाए तो क्या यह पाप है? अपुण्य जैसा कोई शब्द नहीं है। गंगा स्नान करना पुण्य है, क्या गंगा स्नान नहीं करना पाप है? नहीं। पर गंगा स्नान के लिए या मंदिर जाने वाले लोगों को जबर्दस्ती रोकना, उन्हें नुकसान पहुंचाना, गंगा या मंदिर को नुकसान पहुंचाना पाप भी है, अधर्म भी। इसके लिए राजकीय दंड भी दिया जा सकता है और दैवीय दंड भी।
व्यावहारिक रूप से अधिकांश पाप अधर्म के कैटेगरी में भी आ जाते हैं। चोरी, हत्या, झूठ, किसी दूसरे की संपत्ति हड़प लेना, किसी को तकलीफ पहुंचाना इत्यादि पाप भी हैं और अधर्म भी। पाप जिसके लिए दंड ईश्वरीय विधान से मिलता है, अधर्म जिसके लिए दंड राजकीय विधान से मिल सकता है। ये सब आज भी अपराध माने जाते हैं। लेकिन ये नहीं करना चाहिए, ऐसा कितने लोग कानून को पढ़ कर जानते हैं? पाप के कान्सैप्ट के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी बचपन से ही हमें समाज द्वारा यह बता दिया जाता है कि यह गलत है, पाप है, हमें नहीं करना चाहिए। सोशियोलॉजी के भाषा में इसे ‘सोशल कंडिशनिंग’ कहा जाता है।
जब हम पाप और पुण्य की बात करते हैं, सोसाइटी हमें कुछ काम के लिए प्रोत्साहित और कुछ काम के हतोत्साहित करना चाहता है तो उसके लिए उसे कुछ पुरस्कार और दंड की व्यवस्था भी करनी होती है। इसीलिए पुण्य करने पर धन-धान्य, सुखी परिवार, मोक्ष, स्वर्ग, आदि के पुरस्कार की और पाप के लिए गलत परिणाम मिलने और नरक जाने जैसे दंड की बात की जाती है।
गंगा स्नान किया जाना चाहिए, कुम्भ स्नान किया जाना चाहिए, संगम का महत्व है। यह पुण्य का कार्य है। यह शरीर और मस्तिष्क दोनों के लिए अच्छा है। लेकिन इसे नहीं करना पाप नहीं है। ऐसे ही कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा जा सकता है क्योंकि वहाँ धर्म की स्थापना या रक्षा के लिए युद्ध किया गया था, प्रयास किया गया था। पर बद्री क्षेत्र तपोभूमि है, इसलिए वह पुण्यक्षेत्र है।
इसी तरह पूजा, जप, तप, व्रत, ध्यान, योग, तीर्थयात्रा, दान, जलाशय बनवाना, वृक्ष लगाना, सराय या धर्मशाला बनवाना, आदि पुण्य की श्रेणी में आते हैं। अगर आप करते हैं तो बहुत अच्छा है। भूखे को भोजन कराना, निराश्रित लोगों को आश्रय प्रदान करना, अनाथ बच्चों की मदद करना जैसे कार्य धर्म भी हैं और पुण्य भी। आपके ये सदाचार भगवान को भी अच्छे लगते हैं। पर ये धर्म का स्थान नहीं ले सकते हैं, हाँ उंसके साथ हो सकते हैं। इसलिए धर्म-पुण्य शब्द साथ-साथ भी कई बार प्रयोग किए जाते हैं।
उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति किसी की आजीविका अधर्मसंगत रूप से यानि अनुचित रूप से छीन लेता है, फिर भले ही वह कितना भी दान करे पर इस पुण्य से उसके अधर्म की भरपाई नहीं हो पाएगी। लेकिन अगर वह दूसरे के साथ धर्मसंगत यानि उचित व्यवहार रखता है, साथ ही अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार थोड़ा भी दान करता है तो उसका यह पुण्य अधिक महत्व का होगा। महाभारत में मुद्गल मुनि की कहानी है जो अपने परिवार सहित बहुत ही गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे थे फिर भी उन्होने अपने और अपने परिवार के हिस्से का थोड़े सा सत्तू स्वयं भूखे रह कर दान किया था। इस छोटे से दान के कारण उन्हें सबसे श्रेष्ठ दानी माना गया। दूसरी तरफ रावण ने पुण्य बहुत से किए थे लेकिन उसका आचरण धर्म का नहीं था।
तो यह अंतर है धर्म में और पुण्य या कर्म में। पवित्र शास्त्रों के अनुसार पुण्य धर्म का स्थान नहीं ले सकते, धर्म रहित पुण्य का कोई उपयोग नहीं होता लेकिन अगर धर्म के अनुसार आचरण करते हुए पुण्य के कार्य भी किए जाय तो यह हमारे मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को बढ़ावा देता है और धर्म के अनुसार चलने में हमारी सहायता करते हैं। भगवान को ऐसे लोग विशेष प्रिय होते हैं। इसलिए सबसे अच्छी स्थिति तो यही है कि धर्म और पुण्य में संतुलन रखा जाय।
कुंभ और संगम में स्नान पुण्य का कार्य है पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस पुण्य का पूरा लाभ तभी मिलेगा जब हम से कोई अधर्म नहीं हो।