हिन्दू धर्म में 12 ज्योर्तिर्लिंगों का विशेष महत्त्व है। ज्योतिर्लिंग वैसे शिवलिंग होते हैं जो माना जाता है कि स्वयं निर्मित होते हैं, मानव द्वारा निर्मित नहीं होते हैं। पुराणों में इनकी संख्या 12 बताई गई है। ये देश के अलग-अलग भागों में अवस्थित हैं। पुराणों के अनुसार
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम् ।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशङ्करम्। वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने। सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये ।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत्
अर्थात जो कोई इन 12 ज्योतिर्लिंगों का प्रतिदिन सुबह उठ कर नाम लेता है और कथा को सुनता है उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
ये 12 ज्योतिर्लिंग निम्नलिखित हैं:
1. सोमनाथ ज्योतिर्लिंग
स्थिति- सोमनाथ, सौराष्ट्र, गुजरात
कथा- प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 पौत्रियों का विवाह चंद्रमा से किया था। लेकिन चंद्रमा इन सभी में रोहिणी को अधिक प्रेम करते थे। इससे अन्य बहने दुखी हुई। वे सब अपने पिता के पास जाकर अपना दुख उन्हें सुना दिया। पुत्रियों का दुख देख कर प्रजापति चंद्रमा के पास गए और उन्हें सभी पत्नियों के साथ समान व्यवहार करने के लिए समझाया। लेकिन उनके समझाने के बाद भी चंद्रमा पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। यह जानकार प्रजापति दक्ष बहुत दुखी हुए। उनके बार-बार समझाने पर भी जब चंद्रमा ने रोहिणी को छोड़ कर अन्य पत्नियों पर ध्यान नहीं दिया तब क्रोधित होकर दक्ष ने उन्हें क्षय रोग हो जाने का शाप दे दिया।
चंद्रमा के क्षय रोग से ग्रसित होने के बाद उनकी चमक समाप्त हो गयी। सारे सृष्टि में इससे हाहाकार मच गया। देवताओं और ऋषि-मुनियों के पूछने पर चंद्रमा ने उन्हें अपने शाप की बात बताया। कारण जान कर देवता और ऋषि-मुनि ब्रह्मा के पास जाकर अपनी समस्या बताया। ब्रह्मा जी ने कहा कि वे इस शाप को तो हटा नहीं सकते थे लेकिन एक उपाय बता सकते हैं जिससे चंद्रमा की बीमारी दूर हो सकती थी। यह उपाय यह था कि चंद्रमा धरती के प्रभास नामक शुभ क्षेत्र में जाकर मृत्युंजय मंत्र के जप से भगवान शिव को प्रसन्न करें।
ब्रह्मा जी की सलाह के अनुसार चंद्रमा ने प्रभास क्षेत्र में शिवलिंग की स्थापना की और वहीं रह कर तपस्या की। उनकी तपस्या से भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होने कहा “एक पक्ष में तुम्हारी कला निरंतर क्षीण होति जाएगी और दूसरे पक्ष में वह निरंतर बढ़ती रहेगी। चंद्रमा द्वारा स्थापित होने के कारण वह शिवलिंग चंद्रमा के नाम पर सोमनाथ कहलाया। उस स्थान पर देवताओं ने सोमकुंड या चंद्र कुंड की भी स्थापना की। माना जाता है कि इसमें भगवान शिव और ब्रह्मा हमेशा निवास करते हैं। प्रभाष क्षेत्र ही वर्तमान सौराष्ट्र क्षेत्र है।
2. मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग (श्री भ्रमराम्बा मल्लिकार्जुन मंदिर)
श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश। यह कृष्ण नदी के तट पर श्रीशैलम की पहाड़ियों पर स्थित है। श्रीशैलम को दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं।
कथा- एक बार विवाह को लेकर कार्तिकेय और गणेश जी में विवाद हो गया। उनके माता-पिता शिव-पार्वती ने पहले गणेश का विवाह कराने का विवाह किया। इससे नाराज होकर कार्तिकेय दक्षिण भारत के क्रौंच पहाड़ पर चले गए। उन्हें मनाने जब माता-पिता वहाँ आए तब नाराज कार्तिकेय उस जगह से 12 कोस और दूर चले गए। जब कार्तिकेय लौटने के लिए तैयार नहीं हुए तब पुत्र स्नेह के कारण शिव-पार्वती ज्योतिर्लिंग का रूप धारण कर वहीं रह गए। माना जाता है कि कार्तिकेय से मिलने के लिए शिव-पार्वती आज भी विशेष तिथियों को वहाँ आते हैं। अमस्या को भगवान शिव और पूर्णिमा को पार्वती जी वहाँ आती हैं। यही ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुआ। मल्लिका का अर्थ पार्वती है और अर्जुन भगवान शिव का ही एक नाम है।
3. महाकालेश्वर ज्योतिलिंग
स्थान- उज्जैन, मध्य प्रदेश
है। कहते हैं कि महाकाल की पूजा करने वाला व्यक्ति अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। यहाँ की भस्म आरती प्रसिद्ध है।
उज्जैन, जिसका उस समय नाम अवन्ती था, में वेदप्रिय नामक ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण सदाचारी, वेद और शास्त्रों को स्वाध्याय एवं वैदिक कर्मों ने लगा रहता था। वह प्रतिदिन भगवान शिवलिंग बना कर भगवान शिव की पूजा करता था। उसकी पत्नी उसके अनुकूल ही धर्मनिष्ठ थी। दंपति को उनके ही अनुकूल चार सदाचारी और धर्मनिष्ठ पुत्र थे। पुत्रों के नाम थे- देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत।
जिस समय यह ब्राह्मण परिवार अवन्ती में रह रहा था उसी समय पास के ही रत्नमाला पर्वत पर दूषण नामक एक दुष्ट असुर रहा करता था। उसे भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त था। वरदान के अभिमान में उस असुर ने वेद, धर्म और धर्मात्मा लोगों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। उसने अपनी असुर सेना के साथ अवन्ती के ब्राह्मणों पर आक्रमण किया। नगर को चारों तरफ से असुर सेना ने घेर लिया था।
लोगों को डरा हुआ देख कर वेदप्रिय ब्राह्मण के चारों बेटों ने लोगों को भगवान शिव पर भरोसा रखने और नहीं डरने के लिए कहा। सभी भाई शिवलिंग की पूजा कर भगवान शिव का ध्यान करने लगे। इसी समय दूषण सेना सहित वहाँ पहुँच गया। उसने अपने सिपाहियों को चारों भाइयों को मारने या बांध लेने के लिए कहने लगा। चारों भाई ध्यान में होने के कारण दूषण की बात नहीं सुन सकें। लेकिन जब असुर उन चारों को मारने के लिए आगे बढ़े तब अचानक शिवलिंग के स्थान पर एक गड्ढा प्रकट हो गया। उस गड्ढे से भगवान शिव भयंकर रूप धारण कर प्रकट हुए। उन्होने कहा “अरे दुष्ट ! मैं तुझ जैसे पापियों के लिए महाकाल रूप में प्रकट हुआ हूँ। तुम इन ब्राह्मणों के निकट से दूर भाग जाओ।” महाकाल रूप धारी शिव ने तत्काल ही अपने भक्तों को बचाने के लिए दूषण को सेना सहित भस्म कर दिया। बची हुई सेना भाग खड़ी हुई। अब तक चारों भाई ध्यान से जग चुके थे। शिव ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। चारों भाइयों ने मोक्ष की मांग की साथ ही सदा यहीं रहने और अपने दर्शन करने वाले लोगों का सदा उद्धार करने के लिए कहा।
उन्हें मन वांछित वरदान देकर भगवन शिव उसी गड्ढे में स्थित हो गए। उस स्थान से चारों ओर एक कोस की भूमि लिंगरूपी भगवान शिव का तीर्थ बन गया और संसार में महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।
4. ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
स्थान- मांधाता, मध्य प्रदेश। मांधाता नर्मदा नदी के तट पर इंदौर के पास स्थित है।
कथा- एक समय देवर्षि नारद गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर भगवान शिव की आराधना की। कुछ समय के बाद नारद मुनि वहाँ से गिरिराज विंध्य पर आए।
विंध्य ने नारद मुनि का बहुत आदर के साथ पूजन किया और कहा – “मेरे यहाँ सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है।” विंध्य की अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुप रह गए। यह देखकर विंध्य पर्वत ने कहा– “मुनिवर, लगता है आप मेरे बात से सहमत नहीं हैं। आपने मेरे यहाँ कौन सी कमी देखी है?” नारद जी ने कहा– “भैया! तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखर देवताओं के लोकों में भी पहुँचे हुए हैं।”
ऐसा कहकर नारद जी तो चले गए पर विंध्य पर्वत दुखी होकर अपने को धिक्कारने लगा। उसने भगवान शिव की तपस्या करने का निश्चय किया। उसने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाई और वहीं कठिन तपस्या करने लगा। विंध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर शिव प्रसन्न हो गए। उन्होंने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। शिव द्वारा वरदान मांगने के लिए कहने पर वह बोला “मुझे वह बुद्धि प्रदान कीजिये जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो।” शिव ने उसे यह वरदान दे दिया। इसी समय देवता और ऋषिगण भी वहाँ आ गए। सबने शिव से वहीं स्थिर रूप से निवास करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने यह प्रार्थना स्वीकार कर लिया। वहाँ जो एक ही ओंकारलिंग था वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। पहला ओंकारेश्वर और दूसरा अमलेश्वर के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ।
5. केदारनाथ ज्योतिर्लिंग
स्थान – केदारनाथ, उत्तराखंड। यह केदार पर्वत पर मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है।
माना जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने यहाँ तपस्या की थी। सतयुग में भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ने बद्रिकाश्रम नामक तीर्थ में भगवान शिव की तपस्या की। उन दोनों ने पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसमें स्थित होकर पूजा ग्रहण करने के लिए भगवान शम्भू से प्रार्थना की।
शिवजी भक्तों के अधीन होने के कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिव लिंग में पूजित होने के लिए आया करते थे।
जब उनके पार्थिव पूजन करते हुए बहुत दिन बीत गए, तब एक दिन शिव ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहा। नर-नारायण ने लोक कल्याण के लिए उनसे यहीं सदा के लिए स्थित हो जाने का वरदान मांग लिया। ऐसा वरदान देकर शिव यहीं सदा के लिए ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए।
6. भीमशंकर ज्योतिर्लिंग
स्थान- भीमाशंकर, महाराष्ट्र। यह स्थान पुणे के पास स्थित है।
कथा- प्राचीन काल में भीम नाम का एक महापराक्रमी राक्षस हुआ। वह सदा धर्म का नाश करता और सभी प्राणियों को दुःख देता था। वह रावण के महाबली भाई राक्षस कुम्भकर्ण का कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न पुत्र था और अपने पिता कुंभकर्ण के समान ही पराक्रमी और बलवान था। अपने पिता के विषय में पूछने पर उसकी माँ ने उसे बताया कि उसके पिता कुंभकर्ण का वध भगवान राम ने युद्ध में कर दिया था। उसके बाद से वह अकेली रहती थी। भीम की माता कर्कटी के पिता का नाम कर्कट और माता का नाम पुष्कसी था। कर्कटी का पहला विवाह राक्षस विराध से हुआ था जिसे राम पहले ही वन में मार चुके थे। पति के मारे जाने पर वह अपने माता-पिता के साथ रहने लेगी थी। एक दिन उसके माता-पिता ने अगस्त्य ऋषि के शिष्य सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा। इससे क्रुद्ध होकर अगस्त्य ऋषि ने उन दोनों को मार डाला। इसके बाद कर्कटी बिलकुल अकेली हो गई। वह इस पर्वत पर अकेली ही रहने लगी। रावण के भाई कुंभकर्ण एक दिन उस पर्वत पर आया। उसने वहाँ कर्कटी के साथ बलपूर्वक संबंध बनाया। जिससे राक्षस भीम का जन्म हुआ।
अपने जन्म और माता की पूरी कहानी सुन कर भीम ने सोचा कि उसके पिता कुंभकर्ण, उसकी माता के पहले पति विराध को राम रूपधारी विष्णु ने मार डाला। विष्णु के भक्त अगस्त्य ऋषि ने उसके नाना-नानी को मार डाला। उसने निश्चय किया कि वह भी भगवान विष्णु को कष्ट देगा। ऐसा निश्चय कर वह ब्रह्मा जी की तपस्या करने लगा। ब्रह्मा जी के प्रसन्न होने पर उसने अतुलित बलवान होने का वरदान मांगा।
वरदान पाकर भीम ने पहले तो देवताओं और फिर उनकी सहायता करने वाले भगवान विष्णु को परजीत किया। इसके बाद उसने पृथ्वी को जितना शुरू किया। सबसे पहले उसने कामरूप (आधुनिक असम) देश पर आक्रमण किया। कामरुप क शसक सुदक्षिण भगवान शिव का महान भक्त था। भीम ने युद्ध सुदक्षिण को हरा कर कैद कर लिया। राज्य और यश खोने के बाद भी राजा सुदक्षिण हताश नहीं हुआ। वह करगार में ही पार्थिव शिवलिंग बना कर शिव की पूजा, ध्यान और मंत्र जप करता था।
इधर दुष्ट भीम अपनी विशाल सेना के साथ समस्त पृथ्वी को अपने वश में कर लिया। वह वेदों और शास्त्रों में वर्णित धर्म का लोप करने लगा। तब समस्त देवता और ऋषिगण भगवान शिव के शरण में पहुँचे और प्रणाम करके उनकी स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनसे वर मांगने को कहा। देवताओं और ऋषियों ने राक्षस भीम क नाश करने के लिए प्रार्थना किया। शिव ने कहा–
“देवताओं! कामरूप देश के राजा सुदक्षिण मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं। उनसे मेरा एक संदेश कह दो। उनसे कहना कि ब्रह्माजी के वर से शक्तिशाली होकर भीम ने जो उनका तिरस्कार किया है, मैं शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस को उसका उचित दंड दूँगा।” इसके बाद सभी देवता और ऋषिगण प्रसन्न होकर राजा सुदक्षिण के पास जाकर उनको भगवान शिव का संदेश सुनाया और अपने अपने स्थान को चले गए।
भीम के गुप्तचरों ने इस बात की सूचना उसे दी और कहा कि राजा सुदक्षिण आपके नाश के लिए कोई षड्यंत्र कर रहे हैं। यह समाचार सुनते ही भीम कुपित होकर राजा सुदक्षिण को मारने के उद्देश्य से हाथ में नंगी तलवार लेकर कारागार में पहुँचा।
वहाँ पहुँच कर उसने राजा को बहुत सारे दुर्वचन कहे और भगवान शंकर के पार्थिव लिंग पर तलवार चलायी। वह तलवार उस पार्थिव लिंग का स्पर्श करे इसके पहले ही वहाँ साक्षात भगवान शंकर प्रकट हो गए और बोले– “देखो, मैं अपने भक्त की रक्षा के लिए यहाँ प्रकट हुआ हूँ। मेरा व्रत है कि मैं सदा अपने भक्त की रक्षा करूँ।”
ऐसा कहकर भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए और हुंकार मात्र से ही तत्काल भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। भगवान शंकर की कृपा से इन्द्र आदि समस्त देवताओं और ऋषियों को शांति मिली तथा सारे संसार की पीड़ा और दुःख का अंत हुआ। उस समय देवताओं और ऋषियों ने भगवान शंकर की स्तुति की और कहा – “प्रभो! आप यहाँ लोगों को सुख देने के लिए सदा निवास करें। आपका दर्शन करने से यहाँ सबका कल्याण होगा। आप भीमशंकर के नाम से विख्यात होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। आपका यह ज्योतिर्लिंग सदा पूजनीय और समस्त विपत्तियों का निवारण करने वाला होगा।”
उनके प्रार्थना करने पर लोकहितकारी एवं भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गए।
7. विश्वनाथ या विश्वेशर जोतिर्लिंग
स्थान- श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश।
पुराणों के अनुसार अद्वैत निर्गुण परमब्रह्म परमात्मा ने जब अपने को सगुण रूप में प्रकट किया तब वे शिव कहलाए। फिर शिव दो रूपों में प्रकट हो गए। उनका पुरुष रूप शिव कहलाया और स्त्री रूप शक्ति। शिव और शक्ति ने अदृश्य रह कर सृष्टि के विस्तार के लिए पुरुष (विष्णु) और प्रकृति की रचना की। अपनी रचना करने वाले माता पिता को नहीं देख कर पुरुष और प्रकृति संदेह में पड़ गए। तब निर्गुण परमात्मा ने आकाशवाणी कर उन्हें तपस्या करने के लिए कहा तभी उनसे सृष्टि का विस्तार होता। उन दोनों ने तपस्या के लिए स्थान के विषय में पूछा। तब निर्गुण शिव ने पाँच कोस लंबे और चौड़े एक सुन्दर नगर का निर्माण किया। वह नगर सभी आवश्यक वस्तुओं से युक्त था। वह नगर आकाश में पुरुष के समीप आकर स्थित हो गया। पुरुष (भगवान विष्णु) ने सृष्टि की कामना से बहुत वर्षों तक उस नगर में तपस्या किया। तब उनके शरीर से श्वेत जल की अनेक धाराएँ प्रकट हुईं। उस अपार जल राशि में वह नगर डूबने लगा, तब निर्गुण शिव ने तत्काल उस नगर को अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। इसके बाद पुरुष यानि भवन विष्णु योगनिद्रा में चले गए। उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ फिर उस कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण आरम्भ किया।
जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण कर लिया तब भगवान शिव ने सोचा कि– ‘इस ब्रह्माण्ड में कर्मपाश से बंधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त करेंगे?’ यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशी (काशी) को इस जगत में छोड़ दिया। यह काशी नगरी कर्म बंधन का नाश करने वाली तथा मोक्षदायिनी है। यहाँ स्वयं परमात्मा ने अविमुक्त लिंग की स्थापना की है। माना जाता है कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होने पर जब सारा संसार प्रलय में मग्न हो जाता है, तब भी इस काशी नगरी का नाश नहीं होता है। उस समय भगवान शिव इसे त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्मा द्वारा पुनः नयी सृष्टि की जाती है, तब वे इसे फिर से इस भूतल पर स्थापित कर देते हैं।
कर्मों का कर्षण करने के कारण ही इस नगरी को काशी कहते हैं। इस काशी पुरी में भगवान शिव उमा सहित सदा निवास करते हैं। यह शंकर जी की प्रिय नगरी है और सदा भोग एवं मोक्ष प्रदान करती है।
8. त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग
स्थान- त्रियम्बक, महाराष्ट्र। त्रियम्बक नगर नासिक के पास स्थित है।
कथा- ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या (अहल्या) ने दक्षिण दिशा में ब्रहमगिरी नामक पर्वत पर रह कर बहुत दिनों तक तपस्या की थी। एक बार वहाँ भयंकर अकाल पड़ा। जल की कमी हो गई। वहाँ रहने वाले मनुष्य और वन्य जीव अपनी जान बचाने के लिए उस स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चले गए। तब गौतम ऋषि ने तपस्या कर वहाँ वरुण देवता को प्रसन्न किया और उनसे वर्षा की मांग की। वरुण देव ने कहा ”देवताओं के विधान के विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहने वाला जल देता हूँ। तुम एक गड्ढा तैयार करो।“ गौतम ऋषि ने एक छोटा सा गड्ढा खोदा और वरुणदेव ने उसे दिव्य जल से भर दिया। गौतम ऋषि वहाँ उस परम दुर्लभ जल को पाकर पहले की तरह ही विधिपूर्वक नित्य पूजन आदि अन्य कर्म करने लगे। उन्होंने वहाँ धान, जौ आदि अनेक प्रकार के अन्न और तरह तरह के फल-फूल के वृक्ष लगा दिए। देखते देखते वे सब लहलहा उठे और वह क्षेत्र अत्यंत सुन्दर हो गया।
यह समाचार सुनकर सहस्त्रों ऋषि-मुनि सपरिवार वहाँ आकर रहने लगे। इसके साथ ही अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और वन्य जीव भी वहाँ आ गए। वरुणदेव के दिए अक्षय जल के प्रभाव से उस वन में सब ओर आनंद छा गया।
एक बार वहाँ गौतम मुनि के आश्रम में आकर बसे हुए ब्राह्मणों की स्त्रियाँ उस पवित्र जल के विषय पर अहिल्या से नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियों को उकसाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम मुनि का अनिष्ट करने के लिए गणेश जी की आराधना की। गणेश जी ने जब वर मांगने के लिए कहा तब उन्होने मांगा “भगवन! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसा कोई उपाय कीजिये जिससे गौतम मुनि को यह क्षेत्र छोड़ कर जाना पड़े।” लेकिन गणेश जी ने उनके वर को अनुचित बताया क्योंकि गौतम ने लोगों के उपकार के लिए वह जल वहाँ मंगवाया था। उनके अनेक प्रकार से समझाने पर भी ब्राह्मण दूसरा वर मांगने के लिए तैयार नहीं हुए। तपस्या के प्रभाव से बंधे गणेश जी ने कहा “तुम लोगों ने जिस कार्य के लिए प्रार्थना की है, उसे मैं अवश्य करूँगा। आगे जो होनहार होगा, वह होकर रहेगा।”
कुछ दिनों के बाद गणेश जी एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके गौतम ऋषि के धान और जौ के खेतों के पास पहुँचे। वह गौ अपनी दुर्बलता के कारण काँपती हुई उन खेतों में जाकर चरने लगी। उसी समय दैववश गौतम जी वहाँ आ गए। अपने दयालु स्वभाव के कारण वे मुट्ठी भर तिनके लेकर उन्हीं से उस गाय को हाँकने लगे। उन तिनकों का स्पर्श होते ही वह गौ पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसी क्षण मर गयी। वे द्वेषी ब्राह्मण और उनकी दुष्ट स्त्रियाँ वहीं छिप कर सब कुछ देख रहे थे। उस गाय के मरते ही वे सब वहाँ पहुँच गए और कहने लगे– “ हे भगवान! गौतम ऋषि ने यह क्या कर डाला! एक ब्राह्मण होकर इन्होनें गौ हत्या का पाप किया।”
इस घटना से आश्चर्य में पड़े गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी अहल्या को बुला कर सब बताया। इधर द्वेषी ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ अपने कटु वचनों से गौतम और उनकी पत्नी अहिल्या को अपमानित कर रहे थे। ब्राह्मण बोले– “अब तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाना चाहिए। यहाँ से जाओ। जब तक तुम इस स्थान में रहोगे तब तक अग्निदेव और पितर हमारे पूजा तर्पण को स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए तुम जल्दी से जल्दी परिवार सहित यहाँ से किसी अन्य स्थान पर चले जाओ।” यह सुनकर गौतम ऋषि तत्काल सपरिवार उस स्थान से निकल गए और उन सबकी आज्ञा से एक कोस दूर जाकर अपने लिए आश्रम बनाया।
उन ब्राह्मणों ने वहाँ जाकर गौतम ऋषि से कहा– “जब तक तुम गौ हत्या का प्रायश्चित नहीं कर लेते तब तक तुम्हें यज्ञ आदि किसी भी वैदिक अनुष्ठान का अधिकार नहीं रह गया है।” यह सुनकर गौतम मुनि ने उनसे प्रायश्चित का मार्ग पूछा। तब उन ब्राह्मणों ने कहा– “गौतम! तुम एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव की आराधना करो। फिर गंगा में स्नान करके ब्रह्मगिरि पर्वत की ग्यारह बार परिक्रमा करो तभी तुम्हारा उद्धार होगा।”
गौतम मुनि ने उन ब्राह्मणों की बात मान ली और पार्थिव लिंगों का निर्माण करके शिव आराधना करने लगे। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर गौतम ऋषि के आराधना से संतुष्ट होकर भगवान शिव वहाँ माता पार्वती और अपने पार्षद गणों के साथ प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। गौतम ने अपने को निष्पाप करने का वरदान मांगा। शिव जी ने कहा– “मुने! तुम धन्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल किया है। जिन दुरात्माओं ने तुम पर अत्याचार किया है, वे ही पापी और दुराचारी हैं। वे सब के सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता।” सब वृतांत जानने के बाद गौतम ऋषि बोले “महेश्वर! उन ऋषियों ने तो मेरा बहुत उपकार किया है। यदि उन्होंने मेरे साथ ऐसा व्यवहार न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे प्राप्त होता?” उनकी यह बात सुन शिव बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कोई और वर मांगने के लिए कहा। ऋषि ने लोक कल्याण के लिए गंगा मांगा। शिव जी की आज्ञा से गंगा एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण करके वहाँ खड़ी हो गयी। ऋषि ने गंगा को प्रणाम कर कहा– “गंगे! तुम सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने वाली हो। इसलिए नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र करो।” इस पर शिव जी ने गंगा से कहा– “देवी! तुम गौतम मुनि को पवित्र करो और तुरंत वापस न जाकर वैवस्वत मनु के अट्ठाईसवें कलियुग तक यहीं रहो।” गंगा ने कहा– “महेश्वर! अम्बिका तथा गणों के साथ आप भी यहाँ रहें, तभी मैं यहाँ रहूँगी।”
शिव ने उनकी बात मान ली। इस प्रकार महर्षि गौतम की प्रार्थना पर भगवान शंकर और गंगा वहाँ स्थित हो गए। वहाँ की गंगा, गौतमी (गोदावरी) नाम से विख्यात हुई और भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर कहलाया। उस दिन से लेकर जब जब बृहस्पति सिंह राशि में स्थित होते हैं, तब तब सभी तीर्थ और देवतागण गौतमी के तट पर वास करते हैं।
9. बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग
स्थान- देवघर, झारखण्ड
कथा- पुराणों के अनुसार रावण ने कैलाश पर जाकर अत्यंत भक्ति भाव से भगवान शिव के लिए कठिन तपस्या किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होने पर शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रावण ने उन्हें अपने साथ लंका चलने के लिए प्रार्थना किया। शिव इस वरदान से असमंजस में पड़ गए। उन्होने अनमने होकर कहा – “तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभाव से अपने घर को ले जाओ। पर अगर मार्ग में तुमने इसे कहीं भी भूमि पर रखा तो यह वहीँ सुस्थिर हो जायेगा।”
भगवान शिव के ऐसा कहने पर रावण ने उनकी आज्ञा लेकर वह शिवलिंग अपने साथ लेकर लंका के लिए प्रस्थान किया। परन्तु मार्ग में भगवान शिव की माया से उसे मूत्रोत्सर्ग की इच्छा हुई। रावण अत्यंत सामर्थ्यवान होने पर भी मूत्र के वेग को नहीं रोक सका। इसी समय वहाँ आस-पास एक ग्वाले को देखकर उसने प्रार्थना करके वह शिवलिंग उसके हाथ में थमा दिया और स्वयं मूत्रत्याग के लिए बैठ गया।
एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह ग्वाला उस शिवलिंग के भार को सहन नहीं कर पाया और उसे पृथ्वी पर रख दिया। फिर वह ज्योतिर्मय शिवलिंग वहीँ स्थित हो गया। वह शिवलिंग जब सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए वहीं स्थित हो गया तब रावण निराश होकर अपने घर चला गया। जब इन्द्र आदि देवताओं और ऋषि मुनियों ने यह समाचार सुना तो वे सब वहाँ आये और बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवजी का विशेष पूजन किया। उन्होंने उस शिवलिंग की विधिवत स्थापना की और उसका नाम वैद्यनाथ रखा।
10. नागेश्वर ज्योतिर्लिंग
स्थान- दारुकावनम, गुजरात। यह स्थान द्वारका के पास स्थित है।
कथा- एक समय दारुका नाम की एक महा बलशाली राक्षसी हुई जिसे माता पार्वती से वरदान पाकर बहुत अहंकार हो गया था। पश्चिम समुद्र तट पर 16 योजन में विस्तृत उसका एक वन था जो सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा रहता था। दारुका अपने विलास के लिए जहाँ जाती थी, वह वन समस्त भूमि, वृक्षों तथा अन्य सभी वस्तुओं समेत वहीं चला जाता था। देवी पार्वती ने उस वन की रक्षा का भार दारुका को सौंप दिया था।
दारुका अपने पति के साथ इच्छानुसार उस वन में विचरण करती थी। उसके पति का नाम दारुक था जो अत्यंत शक्तिशाली था। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुका के साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था। उसने बहुत से राक्षसों को साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषों का संहार मचा रखा था। वह सदा यज्ञ और धर्म का नाश करता था। उससे पीड़ित हुई प्रजा ने महर्षि और्व की शरण में जाकर उनको अपना दुःख सुनाया।
और्व मुनि ने शरणागतों की रक्षा के लिए राक्षसों को यह श्राप दिया कि– ‘ये राक्षस यदि पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।’
देवताओं ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दुविधा में पड़ गए यदि वे युद्ध में देवताओं को मारते तो मुनि के शाप से स्वयं मर जाते और नहीं मारते तो पराजित हो जाते। इस अवस्था में राक्षसी दारुका ने कहा– “माता भवानी के वरदान से मैं इस सारे वन को जहाँ चाहूँ ले जा सकती हूँ।”
यह कहकर वह समस्त वन को साथ ले जाकर समुद्र में जा बसी। राक्षस लोग पृथ्वी से हटकर जल में निर्भय होकर रहने लगे और वहाँ के प्राणियों को पीड़ा देने लगे। एक बार बहुत सी नावें उधर से गुजरी जो मनुष्यों से भरी थीं। वे सभी वैश्यगण व्यापार के उद्देश्य से परदेश जा रहे थे। राक्षसों ने उन सब को पकड़ लिया और बेड़ियों से बांधकर कारागार में डाल दिया और उनको विभिन्न प्रकार से कष्ट देने लगे। उनमें सुप्रिय नाम का एक प्रसिद्ध वैश्य था जो उस दल का मुखिया था। वह बड़ा सदाचारी, भस्म-रुद्राक्षधारी तथा भगवान शिव का परम भक्त था।
सुप्रिय वैश्य के प्रार्थना पर भगवान शिव एक विवर से वहाँ प्रकट हो गए। उन्होने पाशुपतास्त्र लेकर सभी राक्षसों का तत्काल संहार कर दिया और अपने भक्त सुप्रिय की रक्षा की। इसके बाद भगवान शिव ने उस वन को यह वर दिया कि– ‘आज से इस वन में श्रेष्ठ मुनि निवास करें और तमोगुणी राक्षस इसमें कभी न रहें। शिवधर्म के उपदेशक और प्रवर्तक लोग इसमें सदा निवास करें।’
इसी समय राक्षसी दारुका ने दीन भाव से देवी पार्वती की स्तुति की। उसकी प्रार्थना से पार्वती माता प्रसन्न हो गयीं। उनके द्वारा वरदान मांगने के लिए कहने पर दारुका बोली “माता, मेरे वंश की रक्षा कीजिये।” माता पार्वती ने उसे वरदान देते हुए कहा “मैं तेरे कुल की रक्षा करूँगी।” ऐसा कहकर माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा– “नाथ! मैं आपकी ही हूँ और आपके ही आश्रय में रहती हूँ अतः मेरी बात को भी सत्य कीजिये। यह राक्षसी दारुका मेरी भक्त है और राक्षसियों में बलिष्ठ है। अतः यही राक्षसों के राज्य का शासन करे। ये राक्षस पत्नियां जिन पुत्रों को पैदा करेंगी वे सब मिलकर इस वन में निवास करें, ऐसी मेरी इच्छा है।”
शिव बोले– “यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो ऐसा ही हो। मैं भक्तों का पालन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा।” इस प्रकार भगवान शिव और माता पार्वती वहाँ स्थित हो गए। ज्योतिर्लिंग स्वरुप महादेव वहाँ नागेश्वर के नाम से विख्यात हुए।
11. रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग
स्थान- रामनाथस्वामी मंदिर, रामेश्वरम, तमिलनाडु।
कथा- यहाँ लंका पर विजय पाने के लिए स्वयं भगवान राम ने पूजा किया था। भगवान विष्णु के रामावतार में जब रावण सीताजी का हरण करके लंका ले गया, तब सुग्रीव के साथ वानर सेना लेकर श्रीराम समुद्र तट पर आये। वहाँ वे विचार करने लगे कि हम किस प्रकार इस समुद्र को पार करेंगे और किस प्रकार रावण को जीतेंगे। इतने में ही श्रीराम को प्यास लगी। उन्होंने जल माँगा और वानर मीठा जल ले आये। प्रभु श्रीराम ने प्रसन्न होकर वह जल ले लिया। तभी उन्हें याद आया कि ‘मैंने अपने स्वामी भगवान शिव का दर्शन तो किया ही नहीं। फिर यह जल मैं कैसे ग्रहण कर सकता हूँ?’
इस प्रकार विचार कर उन्होंने उस जल को नहीं पिया। इसके बाद उन्होंने भगवान शिव का पार्थिव पूजन किया। आवाहन आदि सोलह उपचारों का पालन करके उन्होंने विधिपूर्वक बड़े प्रेम से शिव की पूजा अर्चना की। इसके बाद दिव्य स्तोत्रों के द्वारा यत्नपूर्वक भगवान शंकर को संतुष्ट करके श्रीराम ने उनसे प्रार्थना की कि “आप मेरी सहायता कीजिये। आपके सहयोग के बिना मेरे कार्य की सिद्धि अत्यंत कठिन है। रावण भी आपका ही भक्त है। वह सबके लिए सर्वथा दुर्जय और महावीर है पर आपके दिए हुए वरदान के कारण सदा अहंकार से भरा रहता है और संसार को कष्ट देता है। इस प्रकार विचार कर आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिए।”
श्रीराम के पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शंकर माता पार्वती तथा पार्षदगणों के साथ निर्मल रूप धारण करके वहाँ प्रकट हो गए। उन्होने राम से वरदान मांगने के लिए कहा। राम ने उनसे रावण के साथ होने वाले युद्ध में अपने लिए विजय की प्रार्थना की। भगवान शिव ने श्रीराम को युद्ध की आज्ञा और रावण पर विजय का वरदान दिया। भगवान शिव से विजय का वरदान पाकर श्रीराम बोले– “यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो संसार के कल्याण के लिए आप सदा यहाँ निवास करें।” श्रीराम के ऐसा कहने पर भगवान शिव वहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए और तीनों लोकों में रामेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
12. घृश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग
स्थान- एलोरा, महाराष्ट्र। एलोरा औरंगाबाद के पास है।
कथा- दक्षिण में देवगिरि नामक पर्वत के निकट भरद्वाज कुल में उत्पन्न सुधर्मा नाम के एक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। वह सदा शिवधर्म के पालन में तत्पर रहती थी। वह गृहकार्य में निपुण और पतिव्रता स्त्री थी। द्विजश्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं और अतिथियों के पूजक थे। वे सदाचारी और वेद–शास्त्र के मर्मज्ञ थे। वे सदा शिव सम्बन्धी पूजनादि कार्यों में ही लगे रहते थे।
यह सब कुछ होने पर भी उनके कोई पुत्र नहीं था जिससे उनकी पत्नी बहुत दुखी रहती थी। तब उस ब्राह्मणी ने अत्यंत दुखी होकर हठपूर्वक अपनी बहन घुश्मा से पति का दूसरा विवाह करा दिया। विवाह से पहले सुधर्मा ने सुदेहा को समझाया कि ‘इस समय तो बहन के प्रति तुम्हारा प्रेम है पर जब इसके पुत्र हो जायेगा तब तुम इससे स्पर्धा करने लगोगी।’ यह सुनकर सुदेहा ने सब प्रकार से अपने पति को विश्वास दिलाया कि वह कभी भी अपनी बहन से ईर्ष्या नहीं करेगी।
विवाह हो जाने पर घुश्मा दासी की भाँति बड़ी बहन की सेवा करने लगी। सुदेहा भी उसे बहुत स्नेह करती थी। घुश्मा अपनी शिवभक्ता बहन की आज्ञा से नित्य एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर विधिवत पूजा करने लगी। पूजा करके वह नजदीक के तालाब में उनका विसर्जन कर देती थी।
शंकर जी की कृपा से उसको एक सुन्दर, सौभाग्यवान और सद्गुण संपन्न पुत्र हुआ। इससे घुश्मा का कुछ मान बढ़ा और यह देखकर सुदेहा के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गया। समय आने पर घुश्मा के पुत्र का विवाह हुआ और पुत्रवधु घर में आ गयी। अब तो सुदेहा घुश्मा से और भी जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और एक दिन उसने रात में सोते हुए पुत्र को छुरे से मार कर उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए और कटे हुए अंगों को उसी तालाब में ले जाकर डाल दिया जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंगों का विसर्जन करती थी।
घुश्मा के पुत्र के अंगों को उस तालाब में फेंककर वह लौट आयी और घर में सुखपूर्वक सो गयी। घुश्मा सबेरे उठकर प्रतिदिन का पूजनादि कर्म करने लगी। सुधर्मा स्वयं भी नित्यकर्म में लग गए। सुदेहा भी उठकर बड़े आनंद से घर के काम काज करने लगी क्योंकि उसके ह्रदय में पहले जो ईर्ष्या की आग जलती थी वह अब बुझ गयी थी।
प्रातःकाल उठकर जब बहु ने पति की शय्या को देखा तो वह खून से भीगी दिखायी दी और वहाँ शरीर के कुछ अंग भी दिखाई दिए, इससे उसको बड़ा दुःख हुआ। वह तुरंत घुश्मा के पास गयी और कहा– “माता! आपके पुत्र कहाँ गए? उनकी शय्या रक्त से भीगी हुई है। किसने यह क्रूर कर्म किया है?” यह कहकर घुश्मा की बहु करुण विलाप करती हुई रोने लगी। सुदेहा भी उस समय रोने का नाटक करने लगी पर मन ही मन वह हर्ष से भरी हुई थी।
पर उस परिस्थिति में भी घुश्मा अपने नित्य पार्थिव पूजन व्रत से विचलित नहीं हुई। जब तक नित्य पूजन का नियम पूरा नहीं हुआ तब तक उसे किसी दूसरी बात की चिंता नहीं हुई। दोपहर को पूजन समाप्त होने पर घुश्मा ने अपने पुत्र की भयंकर शय्या पर दृष्टिपात किया। वह सोचने लगी– ‘जिन्होंने यह बेटा दिया था, वे ही इसकी रक्षा करेंगे। वे काल के भी काल हैं और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। मेरे चिंता करने से क्या होगा।’
इस तरह विचार करते हुए उसने भगवान शिव के भरोसे धैर्य धारण किया। वह अपने नियम के अनुसार पार्थिव शिवलिंगों को लेकर शिव के नामों का उच्चारण करती हुई उस तालाब के किनारे गयी। उन पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर जब वह लौटने लगी तो उसे अपना पुत्र उसी तालाब के किनारे खड़ा दिखाई दिया।
उस समय अपने पुत्र को जीवित देखकर घुश्मा को न तो हर्ष हुआ और न ही विषाद। वह शांतचित्त से यह सब देख ही रही थी कि तभी ज्योतिस्वरूप महेश्वर शिव उस पर संतुष्ट होकर वहाँ प्रकट हो गए। शिव बोले– “मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। वर माँगो। तुम्हारी दुष्टा सौत ने इस बच्चे को मार डाला था। अतः मैं उसे इस अपराध का दंड दूँगा।”
तब घुश्मा ने शिव जी को प्रणाम करके यह वर माँगा– “नाथ! सुदेहा मेरी बड़ी बहन है अतः आपको उसकी रक्षा करनी चाहिए।” शिव बोले– “उसने तो तुम्हारा बड़ा भारी अपकार किया है तो तुम उसका उपकार क्यों करना चाहती हो? दुष्ट कर्म करने वाली सुदेहा तो मार डालने के ही योग्य है।” घुश्मा ने कहा– “देव! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के पूर्वसंचित पापराशि भस्म हो जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। जो अपकार करने वालों का भी उपकार करता है उसके संसर्ग से पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा मैंने सुना है। मैं किसी भी प्राणी का अहित नहीं चाहती फिर वह तो मेरी बहन है।”
घुश्मा के ऐसा कहने पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा– “तुम कोई और भी वर माँगो क्योंकि तुम्हारी भक्ति और विकारशून्य स्वभाव से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।” भगवान शिव की बात सुनकर घुश्मा बोली– “यदि आप वर देना चाहते हैं तो लोगों की रक्षा के लिए सदा यहाँ निवास कीजिये और मेरे नाम से ही आप की ख्याति हो।”
शिव ने उसे वह वरदान देते हुए कहा “मैं तुम्हारे ही नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ सदा यहाँ निवास करूँगा और सबके लिए सुखदायक होऊँगा। मेरा शुभ ज्योतिर्लिंग घुश्मेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो। यह सरोवर तीनों लोक में शिवालय नाम से प्रसिद्ध हो। इस सरोवर का दर्शन सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाला हो। तुम्हारे वंश में होनेवाली एक सौ एक पीढ़ियों तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न होंगे। वे सब के सब सुंदरी स्त्री, उत्तम धन और पूर्ण आयु से संपन्न होंगे। वे चतुर, विद्वान, उदार और मोक्ष पाने के उत्तराधिकारी होंगे। तुम्हारे वंश का विस्तार बहुत शोभादायक होगा।”
ऐसा कहकर भगवान शिव वहाँ घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए।