राम-लक्ष्मण का मिथिला जाना और वहाँ उनका स्वागत-सत्कार
ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में उनके यज्ञ की रक्षा का कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद ऋषि की इच्छानुसार राम-लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र और उनके शिष्यों के समूह के साथ मिथिला के लिए चले। इस यात्रा का उद्देश्य था जनक के अद्भुत धनुष और धनुष यज्ञ का दर्शन करना। रास्ते में अनेक कथा-पुराण कहते-सुनते, विशाला नगरी के राजा सुमति के आतिथ्य ग्रहण करने और मिथिला राज्य की सीमा पर अहल्या को शापमुक्त कर यह समूह मिथिला पहुंचा।
मिथिला के शोभा की सभी ने प्रशंसा किया। यज्ञ मंडप की शोभा देखने के बाद उनलोगों ने एक स्थान पर ठहरने के लिए डेरा डाला।
विश्वामित्र के आगमन की सूचना पाकर राजा जनक अपने पुरोहित शतानंद (जो कि गौतम-अहल्या के सबसे बड़े पुत्र थे) को आगे कर उनका स्वागत करने के लिए चल पड़े। आतिथ्य-सत्कर और परस्पर कुशल क्षेम के बाद जनक के पूछने पर विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण का परिचय दिया। उन्होने बताया कि ये दोनों भाई उनके धनुष के विषय में कुछ जानने की इच्छा से यहाँ तक आए थे।
मिथिला राज जनक के कुलगुरु शतानंद ने राम को पहचान लिया (कि वे विष्णु के अवतार हैं, जिनकी प्रतीक्षा ऋषि-मुनि बहुत समय से कर रहे थे)। उन्होने विश्वामित्र से पूछा कि क्या उन्होने उनकी माता को इन दोनों राजकुमारों का दर्शन कराया? विश्वामित्र ने हाँ में उत्तर देते हुए बताया की उनकी माता उनके पिता से मिल गई हैं।
शतानंद ने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए विश्वामित्र का जीवन वृतांत और वसिष्ठ से उनके संघर्ष की गाथा राम को सुनाया। शतानंद के मुख से विश्वामित्र का संपूर्ण चरित्र सुनने के बाद राजा जनक ने उनकी प्रशंसा की। फिर सुबह में मिलने की बात कह कर सबसे विदा लेकर राजभवन लौट गए।
अगले दिन जनक ने विश्वामित्र और दोनों भाइयों को बुलवाया और उनका आदर-सत्कार किया। विश्वामित्र ने उन्हे इन दोनों भाइयों को भगवान शिव का वह विशेष धनुष दिखाने के लिए कहा। उनके पूछने पर जनक ने उस धनुष के विषय में बताया। उन्होने सीता के जन्म का वृतांत और विवाह की शर्त के विषय में भी बताया।
जनक वंश में सीता की उत्पत्ति
देवरत जनक के वंश के सिरध्वज जनक (सीता के पिता) एक बार यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहे थे। इसी समय हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि (हराई या सीता) से एक कन्या प्रकट हुई। हल द्वारा खींची रेखा (जिसे सीता कहते हैं) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता पड़ा।
सीता के विवाह के लिए शिव धनुष तोड़ने की शर्त
बड़ी होने के साथ ही सीता का रूप और गुण निखरता गया। जनक ने उनके संबंध में यह निश्चय किया कि जो पुरुष अपने पराक्रम से शिव के इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी से सीता का विवाह होगा। इस तरह की शर्तों के लिए “वीर्यशुल्का” शब्द था जिसका तात्पर्य था वीर्य यानि पराक्रम ही जिसका शुल्क हो। अर्थात जिसे पराक्रम से ही पाया जा सके।
देवता, यक्ष, असुर आदि भी इस धनुष को उठा नहीं सके। कई राजा सीता से विवाह की इच्छा से आए लेकिन यह शर्त पूरा नहीं कर पाने के कारण इसमें असफल रहे। यहाँ तक कि सभी राजा मिलकर भी उस धनुष को हिला नहीं सके। जनक द्वारा इस असफल राजाओं को अपनी पुत्री देने से मना करने पर इन सब ने अपने को अपमानित महसूस किया। इस सब राजाओं ने मिलकर मिथिलापुरी पर घेरा डाल दिया। एक वर्ष तक घेरा रहने के बाद मिथिला की युद्ध शक्ति कम होने लगी। तब जनक ने तपस्या द्वारा देवताओं से चतुरंगिणी सेना प्राप्त किया। इस सेना की मद्द से ये राजा हराए जा सके और मिथिला सुरक्षित हुई।
राम द्वारा शिव धनुष तोड़ना
शिव के धनुष के विषय में यह संपूर्ण वृतांत सुनाने के बाद जनक विश्वामित्र के इच्छानुसार राम-लक्ष्मण को वह धनुष दिखाने के लिए तैयार हो गए।
जनक की आज्ञा से उनके मंत्री नगर में गए और धनुष को आगे कर नगर से बाहर निकले। धनुष आठ पहिए वाले लोहे की एक बहुत बड़े सन्दूक में रखा हुआ था। पाँच हजार हृष्ट-पुष्ट मनुष्य इस सन्दुक को खींच कर ला रहे थे। इतने लोग भी उसे कठिनाई से ही खींच पा रहे थे।
जनक ने इस धनुष की विशेषताएँ और अन्य राजाओं द्वारा उसे उठाने में असफलता के बारे में बताया। विश्वामित्र ने राम से उसे देखने के लिए कहा। राम ने सन्दुक खोल कर धनुष को देखा। जनक और विश्वामित्र की सहमति पाकर उन्होने धनुष को उठाया और उस पर प्रत्यंचा चढ़ाया। उनके खींचने से धनुष बहुत तेज आवाज के साथ टूट गया। उस समय वहाँ पर हजारों लोग उपास्थि थे जो यह दृश्य देख रहे थे।
धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना और धनुष को तोड़ना राजकुमारी सीता से विवाह के लिए शर्त था। राम ने यह शर्त पूरा कर दिया था। सीता के पिता, राजपरिवार के अन्य सदस्य तथा जनकपुरी की प्रजा राम को पहले ही बहुत पसंद कर रहे थे। उनके द्वारा विवाह की शर्त पूरी करने पर समस्त जनकपुरी में हर्ष का माहौल हो गया। अब उन दोनों के विधिवत विवाह की तैयारी होने लगी।
धनुष भंजन संबंधी विवाद
अन्य अनेक प्रसंगो की तरह ही धनुष तोड़ने के प्रसंग में भी वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस के विवरण में अंतर है। रामचरित मानस के अनुसार धनुष यज्ञ के स्थान पर ही स्वयंवर हो रहा था जहाँ राम ने वह धनुष तोड़ा था और वहीं परशुराम का आगमन हुआ। लेकिन रामायण के अनुसार विवाह के लिए यह अनवरत शर्त थी। बाकी राजा पहले ही आकर यह प्रयास कर चुके थे। यज्ञ स्थल पर उस समय धनुष रखा हुआ था। विश्वामित्र के आग्रह पर जनक ने उसे वहाँ मंगवाया जहाँ राम-लक्ष्मण विश्वामित्र आदि ठहरे हुए थे। यहीं हजारों लोगों के समक्ष राम ने बिना किसी विशेष प्रयत्न के प्रत्यंचा चढ़ा कर धनुष तोड़ा। परशुराम उनसे बाद में अयोध्या लौटते समय मिले थे।