सीता का अपहरण कर रावण लंका ले गया। वहाँ वह करीब एक साल तक रही। इस संबंध में कई तरह के प्रश्न किए जाते हैं। जैसे; वह रावण के अंतःपुर में थी या अशोक वाटिका में? रावण ने उन्हें क्यों नहीं छुआ? वह वहाँ खाती-पीती क्या थी? बिना खाए जीवित कैसे रही? वहाँ वह कितने दिनों तक रही? इत्यादि। वाल्मीकि रामायण में इन सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है।
रावण द्वारा सीता को अन्तःपुर में रखना
वाल्मीकि के अनुसार सीता को लेकर जब रावण लंका पहुँचा तो पहले उन्हें अपने अंतःपुर अर्थात जहाँ केवल स्त्रियाँ रहती थीं, रखा। उसने राक्षसियों को उन पर पहरा देने के लिए रख दिया। उन पहरेदार राक्षसियों को यह आदेश था कि सीता के जरूरत की प्रत्येक वस्तु उन्हें उपलब्ध करवाई जाए ताकि उन्हें किसी प्रकार का दिक्कत न हो।
राम के विरूद्ध आठ गुप्तचरों की नियुक्ति
सीता की रक्षकों को इस प्रकार आदेश देकर रावण तुरंत वहाँ से बाहर निकल गया। सभा भवन में जाकर उसने राम की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए अपने आठ गुप्तचरों को नियुक्त किया। वह जानता था की यद्यपि वह राम की भौगोलिक सीमा से बहुत आगे आ गया था, लेकिन फिर भी वह चुप बैठने वाले नहीं थे।
सीता को अंतःपुर घूमाना
इसके बाद वह फिर अन्तःपुर में आ गया जहाँ सीता को रख कर गया था। उसने सीता की इच्छा नहीं होने के बावजूद बलपूर्वक उन्हें अपना सारा अंतःपुर घुमा कर दिखाया। उसने अपने राज्य, धन, बल आदि का भी बखान किया। उसे उम्मीद थी कि सीता इन प्रलोभनों से प्रलोभित हो कर उसकी पत्नी बनना स्वीकार कर लेगी। लेकिन सीता पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह उसे फटकारती ही रही।
रावण ने लोभ, भय, छल, विनम्रता आदि यथासंभव प्रत्येक प्रयत्न कर लिया। लेकिन सीता रोती और उसे डांटती रही। भय दिखाने पर भी भयभीत नहीं हुई और राम का गुणगान करती रही। उन्होंने तिनके का ओट कर रखा था। तिनके के ओट को दोनों के बीच दीवार और सीता के साक्षी के रूप में देखा जा सकता है।
एक साल की मोहलत
हर प्रकार से प्रयत्न कर जब रावण हार गया तब उसने उन्हें एक साल का समय दिया। इस एक साल के अंदर सीता अगर रावण की पत्नी बनाना स्वीकार कर लेती तो वह मुख्य पटरानी बन कर जीवित रहती। ऐसा नहीं करने पर एक साल व्यतीत होने के अगली सुबह सीता को मार कर नाश्ते में परोसने का आदेश दे दिया।
लेकिन सीता पर इस धमकी का भी कुछ असर नहीं हुआ। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया और अपने प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।
सीता को अशोक वाटिका में रखना
रावण ने जब देखा कि अगर उन्हें इस तरह बलपूर्वक उसके महल में रखा जाएगा तो वे निराहार रह कर अपना प्राण त्याग देंगी। तो उसने उन्हें अंतःपुर के बीच ही बने अशोक वाटिका में रखने का आदेश दिया। इसके बाद सीता जब तक लंका में रही वह अशोक वाटिका में ही रही।
राजाओं के अंतःपुर में केवल स्त्रियों के महल होते थे। वहाँ अन्य पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध होता था। इन महलों के बीच एक छोटा और सुंदर वाटिका होता था। जहाँ राजा अपनी रानियों के साथ जा सकता था या अन्तःपुर की स्त्रियाँ जा सकती थी। लेकिन किसी बाहरी व्यक्ति को वहाँ प्रवेश की अनुमति नहीं होती थी। इसीलिए वहाँ का पहरा भी बहुत सख्त होता था। अशोक वाटिका ऐसा ही वाटिका या उद्यान था।
उत्पीड़न
रावण ने अपने राक्षसियों के आदेश दे दिया कि वे सीता को वास्तव में कोई आघात नहीं पहुंचाए लेकिन उन्हें इतना डराए-धमकाए और तंग करे कि वह हार मान कर रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर ले। और अपने पति राम के लिए “सीता का अहंकार” टूट जाए।
इस आदेश के अनुसार वे रक्षक राक्षसियाँ सीता पर तरह-तरह के अत्याचार करती थी। कभी-कभी रावण स्वयं भी आकर उन्हें के साल के अवधि की याद दिलाता और धमकाता रहता था। जब हनुमान जी लंका सीता को खोजने गए थे, उस सुबह भी रावण ने आकर इसी तरह कठोरता से उन्हें डराया और धमकाया था।
सीता ने अशोक वाटिका में आने पर भी कुछ नहीं खाया। यहाँ तक कि पानी भी नहीं पिया। वे पति के बिना इस तरह के अपमानजनक क़ैदी जीवन का अंत कर देना चाहती थीं लेकिन रावण का प्रस्ताव मानने के लिए तैयार नहीं थी।
देवताओं द्वारा सीता के प्राण रक्षा का प्रयास
सीता का यह हाल जब देवताओं ने देखा तो उन्हें चिंता हुई कि ऐसे तो वह अपने प्राण त्याग देंगी। ऐसे में देवताओं का राम-रावण में युद्ध करा कर राक्षसों के नाश का सारा प्रयास ही विफल हो जाता। वे सीता को जीवित रखना चाहते थे।
अतः ब्रह्मा के आदेश से रात को इन्द्र निद्रा देवी के साथ अशोक वाटिका में आए। निद्रा के प्रभाव से जब सभी रक्षिकाएँ सो गई तब इंद्र सीता के मिले। उन्होने उनके पति और देवर की कुशलता सुनाया। उन्हें आश्वासन दिया कि उनके पति उन्हें यहाँ से सकुशल ले जाएँगे। लेकिन तब तक उनसे अपने प्राण बचाए रखने का आग्रह किया।
चूँकि सीता रावण के राज्य का जल भी ग्रहण नहीं करना चाहती थी। इसलिए इन्द्र ने उन्हें एक विशेष दैवीय खीर (हविष्य) दिया। जिसे खाने के बाद भूख-प्यास का अनुभव नहीं होता। और वे बिना खाए-पिए भी लंका में जीवित रह सकती थी।
जब सीता यह विश्वास हो गया कि वह वास्तव में इन्द्र ही थे, तब वह उनकी बातों से थोड़ी आश्वस्त हुई। उन्होंने प्राण त्याग करने का विचार छोड़ दिया और वह खीर खा लिया।
सीता जब तक लंका में रहीं, रावण की मृत्यु के बाद विभीषण के राज्याभिषेक से पहले तक, न तो वहाँ का अन्न या जल ग्रहण किया, न ही स्नान किया और न ही बालों को सँवारा, न ही कभी किसी महल में गईं। जब हनुमान आए थे, तो उनके इसी बंदिनी वाले रूप और चेहरे पर आँसुओं के निशान देख कर उन्हें पहचाना था।