महाभारत की कथा सुनने सुनाने की पृष्ठभूमि दो शाप से बना था। एक शाप राजा परीक्षित को मिला था जिस कारण उनकी मृत्यु हुई। दूसरा शाप उनके पुत्र राजा जनमेजय को मिला था कि उन पर अचानक कोई ऐसी आपत्ति आ जाएगी इसका कोई पूर्वानुमान नहीं होगा। कथा को किसने और क्यों सुनाया इससे पहले इन दोनों शाप के विषय में जान लेते हैं।
परीक्षित कौन थे?
परीक्षित अर्जुन और कृष्ण की बहन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु के पुत्र थे। महाभारत के युद्ध में जब अभिमन्यु को छलपूर्वक मारा गया उस समय परीक्षित उनकी पत्नी उत्तरा के गर्भ में ही थे। युद्ध के बाद अश्वस्थामा ने पांडव वंश को समाप्त कर देने के लिए द्रौपदी के पांचों पुत्रों को सोए में मार डाला। इतना ही नहीं उसने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु पर भी ब्रह्मास्त्र चला दिया। लेकिन भगवान कृष्ण की कृपा से वह शिशु बच गया। इसका नाम परीक्षित रखा गया। इस तरह यह पांडव पांचों भाइयों का एकमात्र जीवित वंशज था।
युद्ध के 36वें वर्ष में कृष्ण की मृत्यु के बाद पांडव अपने पौत्र परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंप कर देह त्याग करने चले गए।
परीक्षित अपने पूर्वजों की ख्याति के अनुरूप ही पराक्रमी, धर्मात्मा और प्रजापालक राजा थे। कहते हैं कि कलयुग का आरंभ उनके शासन काल से ही हुआ अर्थात उनका शासन काल द्वापर और कलयुग का संधि काल था।
परीक्षित को शाप
परीक्षित यद्यपि एक लोकप्रिय और धार्मिक राजा थे लेकिन कलयुग के प्रभाववश उनसे एक गलती हो गई जिस कारण उनको शाप मिला।
वे एक बार अपने ही राज्य में शिकार करने गए। अपने बाणों से घायल हुए पशु का पीछा करते हुए वे एक आश्रम में पहुँच गए। उस समय वह भूख, प्यास और थकावट से परेशान हो गए थे। वह आश्रम शमीक नामक एक महर्षि का था जो कि उस समय मौन व्रत लिए हुए थे। राजा ने उनसे पशु के विषय में पूछा। ऋषि मौन व्रत धारण किए हुए होने के कारण कुछ बोल नहीं पाए। राजा ने इसे अपना अपमान समझा और वहाँ पड़े एक मरे हुए सांप को धनुष की नोक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया।
शमीक ऋषि जानते थे कि राजा को उनके मौन व्रत के विषय में पता नहीं था, वे थके हुए थे, इसिले उन्होने राजा पर क्रोध नहीं किया। लेकिन उनके किशोर वय पुत्र शृंगी को जब अपने एक मित्र क्रिश से इस घटना का पता चला तो उसने राजा को शाप दे दिया कि आज से सातवें दिन की रात्री को विषैले तक्षक नाग के काटने से उसकी मृत्यु हो जाएगी। पिता द्वारा समझाने पर भी शृंगी ऋषि का क्रोध कम नहीं हुआ। उनका शाप व्यर्थ नहीं हो सकता था। अतः शमीक ऋषि ने यह सूचना देने के लिए अपने एक शिष्य गौरमुख को राजा के पास भेजा ताकि वे अपने बचने का कोई उपाय कर सकें।
राजधानी में गौरमुख का राजा परीक्षित ने स्वागत सत्कार किया। उसके मुख से शाप की बात सुन कर उन्हें अपनी मृत्यु से अधिक दुख अपने व्यवहार पर हुआ। राजा ने शमीक ऋषि से राजधानी आने का आग्रह किया।
राजा के लिए सुरक्षा की व्यवस्था
गौरमुख के जाने के बाद राजा ने मंत्रियों से सलाह किया। एक अत्यंत सुरक्षित महल बनवाया गया जहां रह कर परीक्षित आवश्यक कार्य सम्पन्न करने लगे।
काश्यप ब्राह्मण को तक्षक द्वारा राजा का इलाज करने से रोकना
सातवें दिन मंत्रों के ज्ञाता ब्राह्मण काश्यप राजा का इलाज करने आ रहे थे। रास्ते में तक्षक ने उसे देख लिया। वह स्वयं वृद्ध ब्राह्मण के वेश में काश्यप से आकर मिला और लौट जाने के लिए समझाया। तक्षक द्वारा डसने से नष्ट हुए एक वट वृक्ष को ब्राह्मण ने फिर से हरा भरा कर दिया। इससे तक्षक को विश्वास हो गया कि वह उसके विष का इलाज काश्यप के पास था। उसने धन आदि का लालच दिया। काश्यप ने दिव्य दृष्टि से जान लिया कि राजा की आयु समाप्त हो चुकी थी। ऋषि का शाप भी था उसे। ऐसे में उसका इलाज निष्फल हो जाता और उसकी कीर्ति नष्ट हो जाती। अतः वह धन लेकर लौट गया।
परीक्षित द्वारा भागवत की कथा सुनना
अपनी मृत्यु के विषय में सुनकर राजा ने इतने कम समय में कुछ ऐसा करने के विषय में सोचा ताकि मृत्यु के बाद उन्हें सद्गति मिल सके। बहुत विचार-विमर्श और सोच-विचार के बाद उन्होने भागवत की कथा सुनने का निश्चय किया। यह कथा उन्हें हरिद्वार में बरगद के एक वृक्ष के नीचे दिगंबर बालक सन्यासी शुकदेव जी ने सुनाया था।
राजा की मृत्यु
राजा को डंस कर मार कर शाप सच करने के लिए तक्षक विचार करने लगा। लेकिन राजा का महल बहुत ही सुरक्षित था और राजा की आज्ञा के बिना किसी का उसमें प्रवेश नहीं हो सकता था। इसलिए तक्षक ने अपने कुछ साँपों को ब्राह्मण तपस्वी के वेश में कुश, जल और फल लेकर राजा के पास भेंट देने भेजा। उसमें से एक फल में माया का प्रयोग कर तक्षक स्वयं बैठ गया था।
उन तपस्वी वेश धारी नागों के जाने के बाद राजा उन लोगों द्वारा लाए गए फल को मंत्रियों के साथ खाने लगा। शापवश उसने वही फल लिया जिसमें तक्षक एक छोटे से कीट के रूप में बैठा था। सूर्य अस्ताचल होने वाला था। शापवश राजा की बुद्धि मारी गई। उसने कह दिया ब्राह्मण की बात सत्य होती है तो यह कीट तक्षक नाम धारण कर मुझे काट ले, इससे मेरे दोष का परिमार्जन भी हो जाएगा। ऐसा कह कर वह कीट को अपने कंधे पर रख कर हंसने लगा। मंत्री भी उसकी हां में हाँ मिलाते हुए हंसने लगे।
अचानक राजा की बात सुनकर तक्षक अपने विशाल रूप में प्रकट हुआ और राजा के शरीर को जकड़ कर डंस लिया।
तक्षक राजा को डंस कर तेजी से आकाश में उड़ चला। विषजनित अग्नि से महल में आग लग गई। राजा मर कर जमीन पर गिर गया। मंत्री भयभीत होकर भाग चले।
जनमेजय का राजा बनाना
राजा परीक्षित की असामयिक मृत्यु से नए राजा की समस्या उठ खड़ी हुई। उनके चार बेटे थे लेकिन चारों अभी बच्चे ही था। मंत्रियों ने विचार-विमर्श कर उनके सबसे बड़े पुत्र जनमेजय को राजा बना दिया। बच्चे होने के कारण जनमेजय को अपने पिता की मृत्यु आदि के विषय में कुछ अधिक जानकारी नहीं थी।
बड़े होने पर जनमेजय भी अपने पिता की तरह ही पराक्रमी, विजेता, धर्मपरायण और लोक कल्याणकारी राजा हुए। उनका विवाह काशीराज सुवर्णवर्मा की पुत्री वपुष्टमा के साथ हुआ।
जनमेजय को सरमा कुतिया का शाप
जनमेजय कुरुक्षेत्र में दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे- श्रुत सेन, उग्र सेन, भीमसेन। एक दिन देवताओं की कुतिया सरमा का पुत्र सारमेय वहाँ आ गया। जनमेजय के भाइयों ने बिना किसी अपराध के उसे मारा। वह रोते हुए अपनी माँ के पास गया। जब सरमा को पता चला कि उसके पुत्र को बिना किसी अपराध के मारा गया है तब वह क्रोध में यज्ञ में जाकर जनमेजय से इसकी शिकायत करने पहुंची।
जनमेजय या उसके भाइयों ने उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे क्रोध में भर कर सरमा कुतिया ने जनमेजय और उसके भाइयों को शाप दिया “मेरे निरपराध पुत्र को तुमलोगों ने मारा है। अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहले से कोई संभावना नहीं रही होगी।”
इस शाप से जनमेजय भयभीत हो गए। यज्ञ समाप्त कर अपनी राजधानी हस्तिनापुर आने के बाद वह इस शाप को निष्फल करने के लिए एक पुरोहित की खोज करने लगे।
इसी बीच वह शिकार करने अपने ही राज्य के एक वन प्रदेश में गए। वह उसे श्रुतश्रवा नामक प्रसिद्ध ऋषि का आश्रम मिला। ऋषि के पुत्र का नाम था सोमश्रवा। जनमेजय ने सोमश्रवा को पुरोहित के रूप में वरण किया। इसके लिए अनुमति देते हुए श्रुतश्रवा ने अपने पुत्र के विषय में बताया कि वह शंकर की कृत्या को छोड़ कर सभी कृत्या को रोक सकता था। साथ ही यह भी बतलाया कि सोमश्रवा ब्राह्मणों द्वारा मांगने पर कुछ भी दे सकता था। अगर जनमेजय इसे सहन करने के लिए तैयार हो तभी सोमश्रवा को ले जाए। जनमेजय मान गए।
जनमेजय सोमश्रवा को लेकर आ गए और अपने भाइयों को उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए कह कर स्वयं तक्षशिला जीतने चले गए जिसमें उन्हें बाद में सफलता भी मिली।
उतङ्ग द्वारा जनमेजय को तक्षक के विरुद्ध उकसाना और सर्प यज्ञ की सलाह
जनमेजय के राज्य में एक परम गुरुभक्त ऋषि थे जिनका नाम था उतङ्ग। वे ऋषि वेद के शिष्य थे। गुरुपत्नी की आज्ञा पालन करते हुए उतङ्क को एक कुंडल लाना था जिसमे नागराज तक्षक ने उन्हें बाधा पहुंचाया था। कुंडल गुरुपत्नी को देने के बाद उतङ्क के मन में तक्षक से प्रतिशोध लेने का विचार आया। इसी उद्देश्य से वह हस्तिनापुर आकर राजा जनमेजय से मिला। इस समय तक जनमेजय तक्षशिला से लौट आए थे।
उतङ्क ने जनमेजय को तक्षक से अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए उकसाया और सर्प यज्ञ करने की सलाह दिया। यह भी बताया कि उसने उतङ्क के गुरु के कार्य सिद्ध करने में भी बाधा डाला था।
जनमेजय द्वारा तक्षक से बदला लेने के लिए सर्प यज्ञ का निश्चय
जनमेजय ने उसी समय अपने मंत्रियों से पिता की मृत्यु के विषय में पूछा। उतङ्क की बात सत्य जान कर उन्हें क्रोध हो आया। सलाह-मशविरा के बाद जनमेजय सर्प यज्ञ करने के लिए तैयार हुए।
यज्ञ अधूरा रहने की भविष्यवाणी
यज्ञ शुरू होने से पहले ही शिल्प विद्या के ज्ञानी एक सूत ने यह भविष्यवाणी की कि जिस कार्य के लिए यह यज्ञ शुरू किया जा रहा है, एक ब्राह्मण को निमित्त बना कर वह कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा।
इस भविष्यवाणी के बाद पर जनमेजय में यह आज्ञा दे दी कि उसे सूचित किए बिना यज्ञ मंडप पर किसी अपरिचित को आने न दिया जाय।
जनमेजय का सर्प यज्ञ
सर्प यज्ञ शुरू हुआ। सांपों का महा विनाश होने लगा। इधर तक्षक नाग ने अपनी जान बचाने के लिए इन्द्र की शरण ले लिया।
आस्तीक मुनि का यज्ञ मंडप पर आना
वासुकि नाग ने अपनी बहन जरत्कारु से उसके पुत्र आस्तीक को यज्ञ स्थल पर भेजने के लिए कहा ताकि बाकी सांपों की रक्षा हो सके। आस्तीक जब यज्ञ मंडप में प्रवेश करने लगे तब द्वारपालों ने उन्हें रोक दिया। वे वहीं से यज्ञ की स्तुति करने लगे। यज्ञ मंडप के समीप पहुँच कर उन्होने राजा जनमेजय, ऋत्विजों, सदस्यों और अग्निदेव का स्तवन आरंभ किया। इससे ये सब बहुत प्रसन्न हुए।
सबके मनोभावों को समझ कर जनमेजय बोले “ब्राह्मणों! यह बालक है, तो भी वृद्ध पुरुषों के समान बात करता है। इसलिए मैं इसे बालक नहीं वृद्ध मानता हूँ और उसको वर देना चाहता हूँ। इस विषय में आपलोग अच्छी तरह विचार करके अपनी सम्मति दें।” ब्राह्मणों ने उनकी बातों का समर्थन किया लेकिन साथ ही यह भी कहा की ‘वर देने से पहले तक्षक नाग चाहे जैसे भी शीघ्रतापूर्वक हमारे पास आ पहुंचे, वैसा उपाय करना चाहिए।’
तक्षक की रक्षा
जब जनमेजय को पता चला कि तक्षक देवराज इंद्र की शरण में है तब उन्होने ‘होता’ से तक्षक के साथ-साथ इंद्र के आह्वान के लिए भी कहा। भयभीत होकर इंद्र तक्षक को छोड़ कर अपने महल को भाग चले। तक्षक नाग मंत्र शक्ति से खींच कर अग्नि की ज्वाला के समीप जाने लगा। ऋत्विजों ने कहा ‘राजेन्द्र! आपका यह यज्ञ कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहा है। अब आप इन विप्रवर आस्तीक को मनोवांछित वर दे सकते हैं। इधर आस्तीक ने सोचा यही वर मांगने का अच्छा अवसर है। अतः वे भी राजा को वर देने के लिए प्रेरित करने लगे।
आस्तीक मुनि द्वारा यज्ञ रोकना
आस्तीक ने राजा जनमेजय से कहा “यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो तो सुनो मैं मांगता हूँ कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय और अब इसमें सर्प न गिरने पावें।” साथ ही उसने लगभग अचेत हो चुके तक्षक से तीन बार कहा – ‘ठहर जा, ठहर जा, ठहर जा।’ वह वहीं आकाश में ही रुक गया और यज्ञ कि अग्नि में नहीं गिर पाया।
इस पर जनमेजय ने खिन्न होकर उन्हें और कुछ मांगने के लिए प्रलोभित किया लेकिन आस्तीक अपनी बात पर अड़े रहे। तब सभी सभासदों ने एक साथ संगठित होकर राजा से कहा “ब्राह्मण को स्वीकार किया हुआ वर मिलना ही चाहिए।” सभासदों के बार-बार ऐसा कहने पर जनमेजय ने कहा- ‘अच्छा आस्तीक ने जैसा कहा है, वही हो।’ इस प्रकार सर्प यज्ञ रुक गया और तक्षक सहित अनेक सर्पों की जान बच गई।
सर्प यज्ञ में महाभारत का गान
इसी सर्प यज्ञ में यज्ञ कर्म से अवकाश मिलने पर जनमेजय के पूछने पर व्यास जी के शिष्य वैशम्पायन ने गुरु के अनुमति से और उनकी उपस्थिति में सभा को महाभारत की कथा सुनाया था।