कौरव और पांडवों की शिक्षा-part 19

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जब से पांडव और उनकी माँ कुंती हस्तिनापुर वापस आए तब से यह तो निश्चय हो गया था कि उत्तराधिकार का प्रश्न बड़ी समस्या खड़ी करेगा लेकिन ऊपर-ऊपर से सब कुछ सही चल रहा था। 100 कौरव भाई और 5 पांडव भाई- सभी 105 राजकुमारों को एक जैसी ही सुविधाएं दी जा रही थी। इस बीच दुर्योधन ने दो बार जहर देकर पांडवों में सबसे शक्तिशाली भाई भीम को मारने का प्रयास किया लेकिन दोनों बार सफल नहीं हो सका। इस गुस्से में उसने पांडवों के सारथी को मार डाला। लेकिन कुंती और पांडवों ने समस्या को बढ़ने से रोकने के लिए इस मामले को अधिक तूल नहीं दिया। वे सावधान तो हो गए पर किसी को इन घटनाओं के बारे में बताया नहीं। विदुर जान गए थे पर उन्होने भी इसे किसी को बताया नहीं।   

इधर धृतराष्ट्र और भीष्म को चिंता थी सभी राजकुमारों को राजकुमार के लिए उचित शिक्षा और प्रशिक्षण की। इस समय सभी राजकुमार किशोर उम्र के हो चुके थे। पांडवों ने जंगल में ही शिक्षा लिया था पर राजकुमार के लिए उचित शिक्षा लेना था उन्हें अब।

सभी राजकुमारों के पहले शिक्षक यानि आचार्य के रूप में नियुक्त हुए कृपाचार्य।

कौन थे कृपाचार्य?

कृपाचार्य गौतम गोत्र के ब्राह्मण थे। कृपाचार्य के पिता का नाम शरद्वान और दादा का नाम गौतम था। उनकी माँ जानपदी नामक अप्सरा थी। कृपा और उनकी जुड़वा बहन कृपी का पालन-पोषण हस्तिनापुर के महराज शांतनु ने ही अपनी संतान की तरह किया था। कृपाचार्य को धनुर्वेद का ज्ञान उनके पिता शरद्वान गौतम ने ही छुप कर हस्तिनापुर में आकर कराया था। उनके शिष्यत्व में वे कृपाचार्य धनुर्वेद के चारों प्रकारों के उत्कृष्ट आचार्य हो गए थे।

कृपाचार्य द्वारा राजकुमारों को शिक्षा

कृपाचार्य ब्राह्मण होने के बावजूद शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्र विद्या के भी पारंगत थे। उन्होने सभी राजकुमारों को धनुर्वेद का अध्ययन कराना आरंभ किया। कौरवों, पांडवों के अतिरिक्त यदुवंशी तथा अन्य देशों से आए अनेक राजकुमारों ने कृपाचार्य से ही धनुर्वेद की शिक्षा ली थी।

द्रोण की आचार्य के रूप में नियुक्ति

कृपाचार्य से राजकुमारों ने बहुत कुछ सीख लिया था लेकिन भीष्म चाहते थे कि वे इससे अधिक और विशेष शिक्षा ले जैसा कि एक महान राजवंश के राजकुमारों से अपेक्षा की जाती थी। इसके लिए वे किसी अच्छे गुरु को खोज रहे थे। उनकी खोज पूरी हुए गुरु द्रोण के रूप में।

वैसे तो द्रोण का विवाह कृपाचार्य की जुड़वा बहन कृपी से हुआ था। पर वे इस रिश्तेदारी के कारण नियुक्त नहीं हुए थे। द्रुपद से अपमानित होने के बाद उससे बदला लेने और अपने बेटे को एक अच्छी जिंदगी देने का लक्ष्य लेकर वे हस्तिनापुर आए थे। हस्तिनापुर ही आने के दो कारण थे- एक तो हस्तिनापुर का राज परिवार योग्य लोगों का आदर करता था; दूसरा, राजकुमारों के गुरु कृपाचार्य उनकी पत्नी के भाई थे।   

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लेकिन यहाँ द्रोण ने किसी को अपना परिचय नहीं दिया था। ऐसे में ही नगर के बाहर एक दिन राजकुमार गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। खेलते-खेलते उनका गिल्ली एक सूखे हुए कुएं में गिर गया। द्रोण जो किसी काम से पास में ही थे, ने उस गुल्ली को साथ ही अपनी अंगूठी को सींक को तीर की तरह प्रयोग कर कुएं से निकाल दिया। उनकी यह प्रतिभा देख कर सभी राजकुमार बहुत प्रभावित हुए। उन्होने जब अपने दादा भीष्म को इस विषय में बताया तब भीष्म पहचान गए कि यह कार्य जरूर द्रोण का ही होगा। वे द्रोण से मिले और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें राजकुमारों का आचार्य नियुक्त कर दिया।

आचार्य के रूप में द्रोण को एक भव्य महल और धन दे दिए गए ताकि वे अपने परिवार के साथ आराम से रह कर राजकुमारों को पढ़ाने का काम कर सके।

इससे द्रोण की आर्थिक समस्या तो खत्म हो गई पर द्रुपद से बदला लेना बाकी था। यह बदला वह अपने शिष्यों के द्वारा ही लेना चाहते थे। आचार्य के रूप में तो वे कहीं और भी कार्य कर धन कमा सकते थे पर हस्तिनापुर आने का कारण ही था द्रुपद से बदला। हालांकि यह बात उन्होने न तो भीष्म से कहा न ही अपने किसी विद्यार्थी से। भीष्म से केवल यह कहा कि वे अपने विद्यार्थियों द्वारा समय आने पर अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहते थे। अपने विद्यार्थियों को शिक्षा देते हुए यह जानने का प्रयत्न कर रहे थे कि इनमें से कौन इतना सक्षम था जो उनके उद्देश्य को पूरा कर सके।

द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा

सभी राजकुमारों का शिक्षण और प्रशिक्षण आचार्य द्रोण के शिष्यत्व में होने लगा। द्रोणाचार्य सभी राजकुमारों को विविध प्रकार के दिव्य एवं मानव अस्त्र विद्या की शिक्षा देने लगे। उनके शिक्षण की ख्याति बढ़ने लगी। धीरे धीरे वृष्णि वंश, अंधक वंश आदि के राजकुमार भी वहाँ शिक्षा लेने आने लगे। सूत जाति के अधिरथ का पालित पुत्र कर्ण भी यहाँ शिक्षा लेने आया। उनका पुत्र अश्वत्थामा भी सबके साथ वहीं अपने पिता से शिक्षा प्राप्त करता था।  

इस तरह द्रोण के गुरु कुल में सभी राजकुमार और अन्य विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। यद्यपि सभी शिष्य अस्त्र विद्या में प्रवीण एवं पराक्रमी थे। पर कुछ विशेषज्ञता भी दिखने लगा था। अर्जुन एवं कर्ण धनुष विद्या में सबसे बढ़े चढ़े थे तो दुर्योधन एवं भीमसेन गदायुद्ध में। नकुल एवं सहदेव तलवार युद्ध में तथा युधिष्ठिर रथ पर बैठ कर युद्ध करने में सबसे श्रेष्ठ थे। अर्जुन धनुष के साथ-साथ अन्य युद्ध कलाओं में भी प्रवीण था।

गुरु का अर्जुन के प्रति भी अधिक स्नेह था। भीमसेन शारीरिक बल में सबसे बलिष्ठ था। इसलिए कौरव सभी पांडवों से, विशेष कर अर्जुन एवं भीम से बहुत ईर्ष्या रखते थे।

राजकुमारों की परीक्षा

जब शिक्षा पूरी हो गई तब द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों की अस्त्र विद्या का परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होने कारीगरों से एक नकली गीध बनवा कर एक पेड़ की डाल के बिल्कुल आगे के भाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को उस पक्षी के नकली होने का पता नहीं था। गुरु ने अपने सभी शिष्यों को उसका मस्तक काटने के लिए कहा।

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एक एक कर सभी शिष्य उसे बींधने आए। पर जब शिष्य धनुष पर बाण चढ़ा कर बींधना चाहता तब द्रोणाचार्य उससे पूछते “वृक्ष की शिखा पर बैठे हुए इस गीध को देखो।”

शिष्य बोलते “मैं देख रहा हूँ।”

गुरु- “क्या तुम इस वृक्ष को, मुझ को अथवा अपने भाइयों को भी देखते हो?”      

शिष्य- “हाँ, मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने भाइयों को तथा गीध को भी बार-बार देख रहा हूँ।”

इस पर मन ही मन अप्रसन्न होते हुए गुरु झिड़कते हुए कहते “हट जाओ यहाँ से, तुम इस लक्ष्य को नहीं भेद सकते।”

लेकिन जब गुरु ने यही प्रश्न अर्जुन से किया तो अर्जुन ने उत्तर दिया “मैं केवल गीध को देखता हूँ। वृक्ष को अथवा आप को नहीं देखता।”  

गुरु- “गीध के अंग कैसे हैं?”

अर्जुन- मैं केवल गीध का मस्तक देख रहा हूँ, उसके सम्पूर्ण शरीर को नहीं।”

इस उत्तर से प्रसन्न होकर गुरु ने कहा “चलाओ बाण”

तुरंत ही अर्जुन के चलाए तीखे क्षुर नामक बाण से उस गीध का मस्तक कट कर गिर गया।

अर्जुन की एक एकाग्रता और कुशलता से द्रोणाचार्य को यह विश्वास हो चला कि अर्जुन युद्ध में राजा द्रुपद को जरूर हरा देगा।

अर्जुन द्वारा द्रोणाचार्य की रक्षा

अर्जुन अस्त्र-शस्त्र चलाने में तो कुशल और बहुत मेहनती विद्यार्थी तो थे ही तुरंत प्रतिक्रिया कर निर्णय भी वे जल्दी ले लेते थे। इसका एक उदाहरण उस समय मिला जब उन्होने गुरु की जान एक मगरमच्छ से बचाया।

एक बार अचार्य अपने शिष्यों के साथ गंगा स्नान के लिए गए। स्नान करते समय एक ग्राह यानि छोटे मगरमच्छ ने उनकी पिंडली को पकड़ लिया। ग्राह पानी के अंदर से ही उन्हें पकड़े हुए था। हालांकि आचार्य स्वयं अपने को बचाने में सक्षम थे फिर भी उन्होने शिष्यों को उन्हें बचाने के लिए पुकारा। उनकी अचानक पुकार सुन कर सभी शिष्य हक्के-बक्के रह गए लेकिन अर्जुन ने तुरंत ही पाँच तीखे बाण पानी में डूबे ग्राह को मारा जिससे वह मर गया और आचार्य मुक्त हुए।

आचार्य द्वारा अर्जुन को ब्रहमशिरा अस्त्र देना

ग्राह को जिस शीघ्रता और कुशलता से अर्जुन ने मार कर गुरु की रक्षा की इससे गुरु बहुत प्रभावित हुए। उन्होने अर्जुन को एक विशेष अस्त्र ‘ब्रहमशिरा’ का ज्ञान दिया। साथ ही यह भी हिदायत दिया कि किसी भी दशा में मनुष्यों पर इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए बल्कि अगर अमानव शत्रु से सामना हो तभी इसका उपयोग हो।

इसी समय गुरु ने फिर से कहा कि “संसार में दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर न होगा।”

द्रोणाचार्य का अर्जुन के प्रति विशेष प्रेम

हस्तिनापुर में आचार्य द्रोण के गुरु आश्रम के सभी शिष्यों में अर्जुन सबसे अधिक जिज्ञासु और अभ्यास करने वाला था। अपने परिश्रम के कारण उसका कौशल अन्य राजकुमारों से अधिक था। आचार्य उसकी प्रतिभा, परिश्रम और गुरुभक्ति से बहुत प्रसन्न रहते थे।

अर्जुन द्वारा गुरु दक्षिणा की प्रतिज्ञा

एक दिन गुरु ने अपने सभी शिष्यों को कहा “मेरे मन में एक कार्य करने की इच्छा है। अस्त्र विद्या प्राप्त करने के बाद तुम लोगों को वह इच्छा पूरी करनी होगी। इस विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?” यह सुन कर कौरव चुप रह गए लेकिन अर्जुन ने बिना जाने कि वह कार्य क्या है उसे पूरा करने की प्रतिज्ञा कर ली। बाद में समय आने पर अर्जुन ने वह प्रतिज्ञा पूरी भी की।

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अर्जुन में धनुर्विद्या सीखने की ललक

द्रोणाचार्य के आश्रम में अन्य शिष्यों की तरह उनका पुत्र अश्वत्थामा भी पढ़ता था। आचार्य उसे अन्य शिष्यों से अधिक ज्ञान देना चाहते थे। इसलिए वह अन्य शिष्यों को कमंडल में पानी लाने भेजते जबकि अश्वत्थामा को बड़े मुंह का घड़ा देते। कमंडल का मुंह छोटा होने के कारण अन्य शिष्यों को पानी भरने में ज्यादा समय लगता लेकिन अश्वत्थामा जल्दी आ जाता। इस बीच वह अकेले में उसे शस्त्र संचालन की कोई विधि बता देते जो अन्य शिष्यों को नहीं पता होता था। अर्जुन ने यह समझ लिया। अब वह वारुण अस्त्र से शीघ्र ही अपना कमंडल भर कर अश्वत्थामा के साथ ही गुरु के पास आ जाता था। इसलिए वह किसी भी विद्या में अश्वत्थामा से पीछे नहीं रहा। 

इस उल्लेख का प्रयोग कुछ लोग यह बताने के लिए करते हैं कि वे एक आदर्श गुरु नहीं थे क्योंकि उन्होने अपने शिष्यों और पुत्र में अंतर किया था। लेकिन यहाँ यह याद रखना चाहिए कि यह प्रसंग अर्जुन के गुणों को बताने के लिए किया गया है कि वह कैसा विद्यार्थी था। अपने पुत्र के प्रति थोड़ा झुकाव होना स्वाभाविक था। लेकिन वे शिष्यों के बीच भेदभाव नहीं करते थे। जब अर्जुन भी अश्वत्थामा के साथ ही आने लगा तब वे उसे भी सब कुछ सिखाया। सभी विद्यार्थियों में केवल अर्जुन में ही सीखने की इतनी उत्कंठा थी, उसकी दृष्टि ही इतनी पैनी थी कि वह इस बात को समझ सका। फिर भी उसने कोई शिकायत नहीं किया और न ही अश्वत्थामा के जैसा बर्तन मांगा, बल्कि अपनी चतुराई जल्दी बर्तन भरने का इंतजाम कर लिया। इसे आजकल की भाषा में ‘स्मार्ट वर्क’ भी कहा जा सकता है।  

अर्जुन द्वारा धनुर्विद्या का अभ्यास 

गुरु अर्जुन की विद्या प्राप्ति के इस ललक को जानते थे। इसलिए रसोइये को अंधेरे में अर्जुन को भोजन देने से मना किया था। पर एक दिन भोजन करते समय तेज हवा से दीपक बुझ गया। अर्जुन अंधेरे में भी भोजन करता रहा। अचानक उसने महसूस किया कि अंधेरे में भी उसके हाथ अभ्यास के कारण आसानी से मुँह तक पहुँच जाते थे, तो अभ्यास कर तीर बिना देखे अंधेरे में भी क्यों नहीं चलाया जा सकता। उस दिन के बाद से उसने रात के अंधेरे में भी अभ्यास करना शुरू कर दिया।

इस तरह अर्जुन में प्रतिभा तो थी ही मेहनती भी बहुत था वह। उसमें कठिन परिस्थियों में भी शांत रह कर सटीक निर्णय लेने की क्षमता थी। यह सब गुण गुरु से छुपा नहीं था। 

द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन को सबसे कुशल धनुर्धर बनाने की प्रतिज्ञा

प्रत्यंचा की आवाज से एक दिन गुरु को इस बात का पता चल गया कि अर्जुन रात में भी अभ्यास करता था। शिष्य के इस परिश्रम से प्रसन्न होकर उसे हृदय से लगाकर उन्होने आशीर्वाद दिया “मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा जिससे इस संसार में दूसरा कोई धनुर्धर तुम्हारे समान न हो।” इसके बाद वे अर्जुन को घोड़े, हाथी, रथ पर चढ़ कर और जमीन पर रह कर युद्ध की शिक्षा देने लगे। चूंकि अर्जुन रात को भी जग कर अभ्यास करता था। उसने नींद को जीत लिया था। इसलिए उन्हें गुडाकेशी कहा जाने लगा। वह दोनों हाथों से धनुष चला सकता था इसलिए उसे साव्यसाची भी कहा जाने लगा।

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