गोकुल से हट कर वृन्दावन में आवास बना लेने पर भी कंस के राक्षसों का उत्पात कम नहीं हुआ। बछड़ा बन कर आने वाले राक्षस को तो कृष्ण पहले ही मार चुके थे। अब बकासुर ने कृष्ण को मारने का प्रयास किया। बकासुर और अघासुर जैसे राक्षसों का वध भी श्रीकृष्ण की बाललीला के ही भाग हैं।
बकासुर वध
एक दिन कृष्ण और अन्य ग्वालबाल बछड़ों को चराते हुए पानी पीने के लिए जलाशय के तट पर गए। उन्होंने पहले बछड़ों को पानी पिलाया और फिर स्वयं भी पिया। वहाँ उस जलाशय के तट पर कंस का भेजा हुआ एक राक्षस विशाल बगुले का रूप धारण करके बैठा हुआ था। उसका नाम था बकासुर।
उसने झपटकर श्रीकृष्ण को निगल लिया। यह देख कर अन्य ग्वालबाल दुख से अचेत हो गए। इधर कृष्ण जब बगुले के तालु के पास पहुँचे तो अपना शरीर इतना गर्म कर लिया कि बकासुर का तालु जलने लगा। उसने झट से कृष्ण को बाहर उगल दिया। अब बकासुर क्रोधित होकर अपने तीखे चोंच से उनपर हमला करने लगा। भगवान ने उसके दोनों चोंच पकड़ कर उसे चीर दिया।
बकासुर की मृत्यु पर आनंद
इस दैत्य की मृत्यु पर आनंदित होकर देवता उनपर फूल बरसाने लगें और शंख, नगाड़े आदि बजाते हुए उनकी स्तुति करने लगे। ग्वालबाल यह सब देख कर आनंद और आश्चर्य से भर गए।
घर आकर ग्वालबालों ने बकासुर वध की घटना सबको बताया। गोप-गोपियों ने जब जाना कि एक बार फिर कृष्ण मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आए और उनके अनिष्ट चाहने वालों का नाश हो गया तो उनके खुशी और आश्चर्य की सीमा न रही। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम और बढ़ा। आचार्य गर्ग की बातें अक्षरशः सच हो रही थीं। गोप-गोपियां कृष्ण और बलराम के लीलाओं में इतने मग्न रहतें कि उन्हें दुनिया के दुःख और संकटों का कुछ पता ही नही चलता। दोनों भाई भी उन सब को सुख देने के लिए तरह-तरह के बालोचित खेल खेलते।
अघासुर वध
जब श्रीकृष्ण पाँच वर्ष के हो गए थे। एक दिन श्रीकृष्ण सुबह बड़े जल्दी उठे। उन्हें वन में ही कलेवा करने का विचार आया। इस विचार का संकेत उन्होंने सिंगी बाजा बजा कर अन्य साथी ग्वालबालों को दे दिया। सभी ग्वालबाल अपने बछड़ों के साथ बेंत, सिंगी, बाँसुरी आदि लेकर सज संवर कर प्रसन्नतापूर्वक अपने घरों से चल पड़े। वे सब रास्ते में तरह-तरह के खेल करते हुए चल रहे थे।
इधर कंस का भेजा हुआ दैत्य अघासुर, जो पूतना और बकासुर का छोटा भाई था, कृष्ण को मार कर अपने भाई और बहन का प्रतिशोध लेने के लिए आया। अपने नाम के अनुरूप वह अघ (यानि पाप) का मूर्तिमान रूप था। वह एक विशाल अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया।
उसने अपना बड़ा-सा मुख खोल रखा था ताकि कृष्ण के साथ सभी ग्वालबाल भी इसमें धोखे से आ जाए और वह सबको निगल जाए। ग्वालबाल वृन्दावन में नए-नए ही आए थे इसलिए यहाँ की भौगोलिक स्थिति से अधिक परिचित नहीं थे। जैसा राक्षस ने सोचा था, भोले-भाले ग्वालबालों ने उसे गलती से अजगर से मिलते-जुलते आकार का गुफा समझा जो सम्भवतः वृन्दावन की कोई शोभा हो, और उसके खुले मुँह में घुस गए। लेकिन कृष्ण को समझते देर नहीं लगी। फिर भी वे भी अन्य बालकों के बाद उसमे घुस गए।
उनके राक्षस बने अजगर के मुँह में जाते देख कर देवता भयभीत हो गए।
इधर कृष्ण जैसे ही उसके गले तक पहुँचे उन्होने अपना आकार बढ़ा लिया। इससे अजगर बने अघासुर दैत्य की साँसे रुकने लगी और छटपटा कर वह मर गया।
भगवान ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से सभी मरे हुए ग्वाल बालकों और बछड़ों को जीवित कर दिया और सकुशल सबके साथ उसके मुँह से बाहर आ गए।
उस अजगर के शरीर से एक ज्योर्तिर्मय प्रकाश निकला। वह कुछ देर आकाश में रुक कर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करता रहा और उनके आते ही सब देवताओं के देखते-देखते उनमें समाहित हो गया।
देवतागण प्रसन्नतापूर्वक स्तुति और जयजयकार करने लगे। यह जय ध्वनि सुन कर ब्रह्माजी भी आ गए। ग्वालबालों ने यह सारा आश्चर्यजनक दृश्य देखा तो उसी समय था लेकिन उन्होने इसे जब ब्रज में सुनाया तब वे छः वर्ष के हो चुके थे। यह एक वर्ष का अन्तर ब्रह्मा जी की परीक्षा के कारण हुआ। उस विशाल अजगर का सूखा हुआ चर्म बहुत दिनों तक ब्रजवासियों के खेलने के लिए एक अद्भुत गुफा बना रहा।