श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ मथुरा और गोकुल के बाद वृंदावन में हुई। गोकुल से वृंदावन जाने की कथा इस तरह है।
वृन्दावन प्रस्थान के कारण
एक दिन गोकुल में होने वाले उत्पातों पर विचार करने के लिए नंद बाबा और बड़े-बूढ़े गोप इकट्ठे हुए। विचार का विषय यह था कि महावन (गोकुल) में होने वाले उत्पातों के देखते हुए “अब ब्रजवासियों को क्या करना चाहिए?’
उपनंद नामक एक वृद्ध गोप ने कहा कि “नंदराय का छोटा पुत्र कृष्ण तो कई बार मृत्यु के मुँह से बचा है। यहाँ कुछ-न-कुछ उत्पात बार-बार हो रहा है। इसीलिए यह स्थान अब सुरक्षित नहीं है और हमें यहाँ से अन्यत्र चले जाना चाहिए। पास ही एक वन है जिसका नाम है वृंदावन। यह सभी तरह से सुहावन और हमारे अनुकूल है।”
वृन्दावन जाना
उसकी यह सलाह सभी को पसंद आई। यह विचार हुआ कि गोकुल में रहने वाले सभी लोग अपने परिवार, गाय और समस्त संपत्ति (उनकी मुख्य संपत्ति गाय ही थी) के साथ वृंदावन प्रस्थान करेंगे।
तदनुसार समस्त गोकुलवासी गाड़ियों और छकड़ों में सवार होकर उत्साह और प्रसन्नता से वृन्दावन आ गए।
गोपाल लीलाएँ
दोनों भाई गोकुल की तरह वृन्दावन में भी ब्रजवासियों को अपनी बाल लीलाओं द्वारा आनंदित करते रहे। वृन्दावन में थोड़े बड़े होने पर दोनों भाई भी अन्य ग्वालबालों के साथ गाय के बछड़ों को चराने के लिए जाने लगे। गाय चराते समय वे कभी बाँसुरी बजाते, कभी नाचते और कभी तरह-तरह के खेल खेलते। इस तरह समस्त लोकों के रक्षक श्रीकृष्ण वत्सपाल (बछड़ों के चरवाहे) बन कर लीला करने लगे।
गोकुल में तो वे बड़े छोटे थे। इसलिए गाय चराते समय यानि गोपालक के रूप में उनकी लीलाएँ वृन्दावन में ही हुई थी। गोपाल के रूप में भी श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ बड़ी मधुर हैं।
वास्तव में संगीत, नृत्य, कुश्ती, द्वन्द्व युद्ध (जिसमें वह कला भी शामिल था, जिसे वर्तमान में मार्शल आर्ट कहा जाता है) आदि विभिन्न खेलों का अभ्यास उन्हे यहीं हुआ था। अभी तक उनका कोई औपचारिक शिक्षण या प्रशिक्षण नहीं हुआ था। गाय चराते समय भी कई बार कंस के राक्षसों ने उनकी हत्या का प्रयत्न किया। लेकिन वे सभी कृष्ण और बलराम के हाथों मारे गए।
वृन्दावन में कृष्ण की हत्या के प्रयास
कंस के राक्षसों के भय से ही नन्द जी और सभी गोप अपने परिवार और संपत्ति के साथ वृन्दावन में आ गए थे। लेकिन यहाँ भी कंस के राक्षसों का उत्पात कम नही हुआ। अभी तक उन्हें मारने के जो भी प्रयास हुए थे वे उनके घर पर ही हुए थे क्योंकि वे बहुत छोटे थे। अब जब वे बछड़े चराने के लिए जाने लगे तब वहीं उन्हें मारने का प्रयास कंस के अनुचरों ने किया। इनमें सबसे पहले जो दो राक्षस आए और कृष्ण के हाथों स्वयं ही मारे गए उनके नाम थे- बकासुर और अघासुर। पर इनसे पहले भी वृन्दावन में एक राक्षस इस प्रयास में अपनी जान दे चुका था।
वृन्दावन आने के कुछ ही दिनों बाद एक दिन एक राक्षस कृष्ण को मारने के उद्देश्य से आया। उस समय कृष्ण अन्य ग्वालबालों के साथ बछड़ों को चरा रहे थे। वह राक्षस एक सुंदर बछड़े का रूप बनाकर बछड़ों के झुंड में मिल गया ताकि समय मिलने पर कृष्ण को समाप्त कर सके। कृष्ण ने उसे देखते ही पहचान लिया और आंखों से इशारा कर कर बलराम जी को भी बता दिया।
अब कृष्ण उसके पीछे चुपके से ऐसे गए मानो वह उस सुंदर बछड़े पर मुग्ध हो गए हो। भगवान ने पीछे से उस बछड़े बने हुए दैत्य को पूछ और पिछले दोनों पैरों को पकड़कर आकाश में घुमाया उन्होंने जोर से घुमा कर उसके शरीर को कैथ के वृक्ष पर पटक दिया। बहुत से कैथ के वृक्षों को गिराते हुए उस दैत्य का मरा हुआ शरीर जमीन गिर गया। यह देखकर ग्वालबाल आश्चर्यचकित होकर कन्हैया की प्रशंसा करने लगे। देवता भी आनंद से फूलों की वर्षा करने लगे।