श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन उठाने के बाद इंद्र का पश्चाताप
देवराज इन्द्र ने क्रोध और अभिमान में आकर ब्रज भूमि को डुबाने के लिए अपने मेघों को भेज दिया लेकिन बाद में उन्हें अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। वे श्रीकृष्ण से क्षमा मांगने आए। गोलोक से कामधेनु गाय भी उसी समय श्रीकृष्ण को बधाई देने के लिए आई।
लज्जित इन्द्र ने एकांत स्थान में जाकर श्रीकृष्ण के चरणों को अपने मुकुट से स्पर्श किया। उन्होने हाथ जोड़ कर श्रीकृष्ण की स्तुति की। भगवान ने इंद्र से कहा कि वे अपने ऐश्वर्य और धन के मद से मतवाले हो रहे थे, इसलिए श्रीकृष्ण ने उनका यज्ञ भंग करा कर उनपर अनुग्रह किया ताकि वे उन्हें स्मरण रख सकें।
श्रीकृष्ण ने इन्द्र को अपनी राजधानी अमरावती जाने और श्रीकृष्ण की आज्ञाओं का अभिमानरहित होकर निरंतर पालन करते रहने का आदेश दिया।
कामधेनु द्वारा कृष्ण को गोपेंद्र का पद देना
श्रीकृष्ण जब इन्द्र को इस तरह आदेश दे ही रहे थे तभी कामधेनु ने अपनी संतानों से साथ गोप वेशधारी श्रीकृष्ण की वंदना की। कामधेनु कहा कि “इन्द्र त्रिलोक के इन्द्र हुआ करे किन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही है। अतः आप गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिए हमारे इंद्र बन जाइए। हम गौएँ ब्रहमाजी जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मान कर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिए ही अवतार ग्रहण किया है।”
कामधेनु और इंद्र द्वारा कृष्ण का अभिषेक
ऐसा कह कर कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया। उनकी प्रेरणा से ऐरावत ने द्वारा अपने सूँड में लाए गए आकाशगंगा के जल से इन्द्र ने भी उनका अभिषेक किया और उन्हें “गोविंद” नाम से संबोधित किया।
उस समय वहाँ नारद, तुंबरू आदि गंधर्व, विद्याधर, सिद्ध और चारण भी आए हुए थे। वे सब श्रीकृष्ण के यश का गान करने लगे और अप्सराएँ आनंद पूर्वक नृत्य करने लगीं। देवतागण उनपर नंदनवन के पुष्पों की वर्षा करने लगें। तीनों लोकों में परमानंद की बाढ़ आ गई।
इस प्रकार, इन्द्र ने गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविंद का अभिषेक किया और उनकी अनुमति पाकर देवताओं, गंधर्व आदि के साथ अपने लोक स्वर्ग गमन किया।