कुम्भ स्नान से कौन से पाप नष्ट होते हैं?

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कर्म फल

अयोध्या का एक राजकुमार था। उसकी उम्र बचपन और युवावस्था के बीच की थी यानि वह किशोरवय था। उसने एक नई विद्या सीखा जिसके अनुसार वह बिना देखे केवल आवाज सुन कर तीर का सटीक निशाना लगा लेता था। उसके निशानेबाजी की यह कुशलता देख कर लोग उसकी बहुत तारीफ करते। उत्साह में वह भी इसका बार-बार प्रदर्शन करता था। एक बार वह शिकार करने सरयू नदी के तट के जंगलों में गया। रात हो जाने के कारण राजकुमार ने अपने सहयोगियों के साथ वहीं नदी के किनारे कैंप लगा लिया। सुबह एक आवाज से उसकी नींद खुली। अभी पूरा उजाला नहीं हुआ था। राजकुमार, जो अपने नए सीखे गए विद्या और शिकार के उत्साह में था, को लगा शायद कोई जानवर नदी में पानी पीने आया है। उसने बिना देखे अंधेरे में आवाज को निशाना बनाते हुए तीर चला दिया। तीर निशाने पर लगा। किसी इंसान के चीखने की आवाज आई। आश्चर्यचकित राजकुमार दौड़ कर नदी किनारे पहुंचा तो देखा उसने किस इंसान को तीर मार दिया था। उसने जिस आवाज को किसी जानवर द्वारा पानी पीने की आवाज समझा था वह किसी इंसान द्वारा बर्तन में पानी भरने की आवाज थी। राजकुमार को बहुत ही अफसोस और दुख हुआ। अपने किए पर पछताते हुए वह राजकुमार उस मृतक युवक के अंधे माता-पिता के पास पहुंचा, अपनी गलती मानी, क्षमा मांगा और जीवन भर उन्हें अपने महल में रख कर अपने माता-पिता की तरह उनकी सेवा करने का वचन दिया। लेकिन माता-पिता इस दुख को झेल नहीं सके और उनकी मृत्यु हो गई। चूंकि राजकुमार ने जानबूझ कर उनके बेटे को नहीं मारा था। वह पछता भी रहा था। इसलिए उनलोगों ने राजकुमार को माफ कर दिया। लेकिन जब बेटे के शव को स्पर्श किया तो उन्हें फिर क्रोध आ गया। उन्होने शाप दे दिया कि जिस तरह हमलोग बेटे के वियोग में मर रहे हैं वैसे ही तुम भी मरोगे। वह राजकुमार बाद में अयोध्या का राजा बना। उसे चार बेटे हुए और बेटे राम के वियोग में ही उसकी मृत्यु हुई।

यह कहानी है भगवान राम के पिता राजा दशरथ की और उनके द्वारा गलती से श्रवण कुमार की हत्या की। मरने से पहले राजा दशरथ ने अफसोस करते हुए अपनी पत्नी को कहा कि ‘विष जानबूझ कर खाया जाया या अंजाने में लेकिन उसके खाने का असर उतना ही होता है, वैसे ही पाप जानबूझ कर किया जाय या अंजाने में लेकिन उसका परिणाम एक ही होता है।”

भगवान के पिता तो क्या स्वयं भगवान भी अपने कर्म के फल से बंधे हुए होते हैं। ऐसे अनगिनत कहानियाँ हमारे पवित्र ग्रन्थों में हैं जब किसी व्यक्ति को कितने भी पुण्य के बावजूद उसके गलती की सजा भुगतनी पड़ी हो। क्योंकि दुनिया कर्मबंधन पर ही टिका हुआ है। हमारे हिन्दू, सनातन या वैदिक विचारधारा का एक मौलिक सिद्धान्त है यह।

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फिर पाप मुक्त होने की बात कहाँ से आ गयी? क्या गंगा स्नान करने से, कुम्भ स्नान करने से, पापनाशक स्तोत्र पाठ करने से या फिर कोई यंत्र लगाने से क्या पाप खत्म हो सकता है, कर्मबंधन टूट सकता है?

प्रायश्चित

वैदिक ग्रन्थों में कहीं भी किसी प्रायश्चित जैसा कुछ नहीं मिलता है। हाँ कुछ ऐसे उदाहरण जरूर मिलते हैं जब कोई अपने किए कामों के लिए पश्चाताप करता है और पश्चाताप में तपस्या करने चला जाता है। जैसे परसुराम। क्रोध और प्रतिशोध में परसुराम जी ने हजारों निर्दोष क्षत्रियों को भी मार दिया। लेकिन उनके मन में इसके लिए अपराधबोध जरूर था। उन्होने आज के कुरुक्षेत्र, जो उस समय समंतपंचक कहलाता था, में कठोर तपस्या किया। अपने पूर्वजों से उन्होने अपने को पापमुक्त करने का वरदान मांगा।

लेकिन पापमुक्त करने के लिए किसी प्रायश्चित या अनुष्ठान का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा पहला उल्लेख पुराणों में मिलता है। समयक्रम में सबसे पहला पुराण माना जाता है भागवत महापुराण को। इसमें एक बड़ा ही महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है। भागवत में एक प्रसंग आता है जब बलराम जी चलते सत्र में मुख्य वक्ता सूत जी की हत्या कर देते हैं। लेकिन बाद में उन्हें लगता है कि उनका यह कार्य गलत था, उनसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। वे वहाँ उपस्थित लोगों से अपने अपराध के लिए खेद प्रकट करते हुए प्रायश्चित के लिए पूछते हैं। लेकिन लोग उन्हें केवल प्रायश्चित करने के लिए नहीं कहते बल्कि कहते हैं कि आपके कारण हमारे सत्र में विघ्न आया है। इसलिए आप इसे पूरा करने में हमलोगों का सहयोग करें। हम लोग सूत जी के बेटे को उनकी जगह नियुक्त कर अपना सत्र पूरा करेंगे। आप सत्र पूरा होने तक यहाँ रुक कर सत्र की राक्षसों से रक्षा कीजिए और सुनिश्चित कीजिए कि सत्र निर्विघ्न पूरा हो सके। सत्र पूरा होने के बाद आप प्रायश्चित कीजिए जिसके लिए वे लोग तीर्थयात्रा, परिक्रमा, जप, यज्ञ, अनुष्ठान आदि बताते हैं।

पुराणों से पहले यह विचार था कि आप अपने पापों के परिणाम से नहीं बच सकते, अगर पुण्य करते भी हैं तो उससे पाप खत्म नहीं होगा बल्कि दोनों का अलग-अलग हिसाब होगा, अच्छे कर्मों के अलग और बुरे कर्मों के अलग। दोनों एक दूसरे को संतुलित नहीं करेंगे। अगर किसी ने अपराध बोध या अपराध के बाद विरक्ति के कारण तपस्या किया तो भी उसके ये दोनों कर्म अलग-अलग रहेंगे। यहाँ तक कि कई जन्मों तक भी ये कर्म बंधन साथ रहते हैं। यानि कर्म का फल शरीर के साथ ही समाप्त नहीं होता है।

लेकिन भागवत के सूत हत्या के प्रसंग से संभवतः पहली बार यह विचार आया कि अगर आपसे कोई गलती हो गई हो अनजाने में या फिर लापरवाही से तो जितना संभव हो सके उसके नुकसान को कम करने का प्रयास कीजिए, फिर अपने शरीर को तकलीफ देकर ऐसे प्रायश्चित कीजिए ताकि दुबारा ऐसी गलती नहीं हो सके। यह तरीका ज्यादा व्यावहारिक लग रहा था।

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धीरे-धीरे अन्य पुराणों और स्मृति ग्रंथो में प्रायश्चित के अनुष्ठान की बात की जाने लगी। हर पाप के लिए उसकी गंभीरता के अनुरूप अलग प्रायश्चित। कुछ पाप इतने जघन्य माने गए जिसके प्रायश्चित संभव ही नहीं था। जैसे, अगर किसी बच्चे, ब्राह्मण, माता-पिता या गाय की हत्या की जाय, घरों में आग लगा दिया जाय, जलाशयों को नष्ट कर दिया जाय, और यह जानबुझ कर किया जाय, तो इसका कोई प्रायश्चित नहीं था।

लेकिन अगर गलती से या अनजाने में ऐसा कोई अपराध हो जाए तो उसके लिए बहुत ही कठिन प्रायश्चित का विधान था। उदाहरण के लिए गाय की हत्या गलती से हो जाने पर एक लंबी अवधि (सवा महीने से सवा साल) तक किसी पीपल के पेड़ के नीचे कठिन तपस्वी का जीवन जीते हुए केवल गाय के दूध या एक समय खाकर मंत्रों का कठिन जप करना होता था। बालू, गोबर, गौमूत्र, गंगाजल आदि से शरीर की शुद्धि भी करनी होती थी।

अन्य अनेक पापों के लिए भी अनेक तरह के प्रायश्चित अनुष्ठान के विधान किए गए। ये भले ही कर्म फल के बंधन से मुक्ति नहीं देते लेकिन एक बात तो थी कि पापों के दैवीय दंड से बचने के लिए या उसका प्रभाव कम करने के लिए मानवीय प्रयास को स्वीकृति मिल गयी थी।

शुरू में ये प्रायश्चित किसी विशेष पाप के लिए ही थे जो कि गलती से हो गए हों और व्यक्ति वास्तव में इस बात का पश्चाताप कर रहा हो। लेकिन पाप और प्रायश्चित का विचार करते समय कुछ ऐसे पाप भी थे जो जाने-अनजाने या आवश्यकतावश प्रायः लोग करते थे। उदाहरण के लिए खेती। खेती करते समय, या खाना बनाते समय जाने-अनजाने कई छोटे जीवों की हत्या हो जाती है। हमारे शास्त्रकार व्यवहारिक लोग थे। उन्होने जैनियों की तरह खेती करने से मना नहीं किया बल्कि कहा कि अनाज का पहला भाग ईश्वर को और दूसरा भाग जरूरतमंदों को दे दिया जाय। तो इससे ऐसे पाप कट सकते हैं। दान दिए जाने वाले भाग का नाम था अग्रहार। भूतयज्ञ की परंपरा यहाँ पहले से ही थी। इसलिए लोगों ने इसे भी सहर्ष अपना लिया। आज भी बहुत से किसान नया अनाज घर आने पर उसका कुछ भाग दान देने के लिए अलग रख लेते हैं।

पाप मुक्ति

कुछ ऐसे भी कार्य हैं जो शास्त्रों के अनुसार पाप हैं लेकिन हम अपने सामान्य जीवन में जाने-अनजाने करते ही रहते हैं। उदाहरण के लिए छोटा-मोटा झूठ बोलना, किसी की बुराई करना, अपनी प्रशंसा करना, किसी का अहित सोचना, क्रोध करना, किसी के प्रति कुविचार रखना, अपने रूप-गुण-धन या पद का अभिमान करना। ये ऐसे पाप हैं जिससे किसी का नुकसान नहीं होता है लेकिन ये सही नहीं हैं क्योंकि नुकसान की शुरुआत इन्हीं भावनाओं से होती है।

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अगर ऐसे पापों के लिए अनुष्ठान किया जाय तो हम में से अधिकांश लोग हमेशा प्रायश्चित का अनुष्ठान ही करते रहेंगे। इसीलिए कहा गया कि हम में से शायद ही कोई हो जो पापों से पूरी तरह मुक्त हो। अपने इन पापों की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए और इसे कम से कम करने का प्रयास करने के लिए प्रार्थनाओं में पापों से मुक्त करने की बात की जाने लगी।

वेदों में कुछ गिने-चुने श्लोक हैं जहां किसी बीमारी से त्रस्त व्यक्ति यह मानते हुए कि यह बीमारी शायद मेरे किसी बुरे कर्मों का नतीजा हो अपने आराध्य देव से कहता है कि मुझे मेरे कर्मों के लिए माफ कर इस बीमारी से निजात दिला दीजिए। पर इसके अलावा पापों से मुक्ति के लिए कहीं कोई प्रार्थना नहीं है। हर स्तुति या प्रार्थना धन-धान्य, पुत्र-पौत्र, परलोक में आनंद जैसे फलश्रुति की ही बात करते हैं। लेकिन मध्य काल में 11वीं-12वीं शताब्दी से कुछ ऐसे इक्का-दुक्का स्तुति मिलने लगते हैं जो पापों से मुक्ति की बात करते हैं।

लेकिन इसमें 15-16वीं शताब्दी में भक्ति संतों के विचारों से अधिक बल मिला। आचार्यों के विपरीत ये संत न तो अधिक पढे लिखे थे न ही उन्हें शास्त्र-पुराणों का अधिक ज्ञान था। लेकिन उनकी भगवान के प्रति निश्छल भक्ति, सरल जीवन एवं व्यावहारिक बातों के कारण जनसाधारण उनके प्रति बहुत आदर रखने लगे। इस समय तक धर्म कुछ लोगों के लिए आजीविका का साधन बन चुका था। साधारण लोगों को ब्राह्मणों के ख़र्चीले और अधिक कठिन अनुष्ठानों एवं पूजा-पाठ की तुलना में संतो की बातें अधिक आकर्षक लगने लगी। 

इसी समय पापमुक्ति की बातें ज्यादा की जाने लगी। तुलसीदास कहते हैं कि राम नाम से करोड़ो जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। गंगा स्नान से पाप नष्ट हो जाते हैं। पूजा-पाठ, व्रत, स्तुति आदि में पाप नष्ट होने  की बात की जाने लगी।

संतो और शास्त्रों की बातों को मिला कर देखें तो यह लगता है कि ये वैसे ही पाप हैं जो व्यावहारिक जीवन में हम करते हैं और जिससे किसी का नुकसान नहीं होता। छोटा-मोटा झूठ बोलना, किसी की बुराई करना, अपनी प्रशंसा करना, किसी का अहित सोचना, किसी के प्रति कुविचार रखना, अपने रूप-गुण-धन या पद का अभिमान करना, इत्यादि, इस तरह के पाप होते हैं, अगर ये अनजाने में हो रहे हों तो। लेकिन जानबुझ कर किए गए पापों से, या ऐसे बड़े पाप जिससे किसी और को कष्ट हो उसके लिए कोई मुक्ति का प्रावधान नहीं है। इनके लिए तो प्रायश्चित भी नहीं है। कर्मफल और कर्मबंध हमारी संस्कृति और धर्म के मूलभूत आधार हैं।              

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