भगवान राम के अवतार का मुख्य उद्देश्य था राक्षसों का संहार और अपने भक्तों को आनंद देना। 16 वर्ष के आयु तक वे अयोध्या में ही रहे और अपने पुरजन (नगर के लोग) और परिजन (संबंधियों) को आनंदित करते रहे। लेकिन जब वे 16 वर्ष के थे, ऋषि विश्वामित्र उन्हें अपने साथ वन में ले गए। इसके साथ ही उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। यद्यपि उनके पिता राजा दशरथ उन्हें ऋषि के साथ भेजने के लिए शुरू में तैयार नहीं थे। लेकिन इसी यात्रा से “राजकुमार राम” अब “भगवान राम” बनने की ओर अग्रसर हुए।
विश्वामित्र राम को केवल दस दिनों के लिए ले गए थे। क्योंकि उनके यज्ञ\अनुष्ठान के अब दस ही दिन बचे थे। लेकिन ये दस दिन पूरा करने के बाद वे राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला चले गए जहाँ चारों भाइयों का विवाह हुआ। ताड़का (ताटिका) आदि राक्षसों का संहार और अहल्या उद्धार जैसे कार्यों के अलावा इस यात्रा में उन्हें कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र और दिव्य विद्याएँ भी मिली। यह समस्त प्रकरण इस प्रकार है:
ऋषि विश्वामित्र को राम की आवश्यकता
महर्षि विश्वामित्र कुशिक वंश के गाधि के पुत्र थे। वे अपने आश्रम में सिद्धि के लिए एक नियम का अनुष्ठान कर रहे थे। उनके इस इस नियम का अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका था। केवल दस दिन और बचे हुए थे। लेकिन मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षस, जो कि इच्छानुसार रूप धारण करने में सक्षम थे, उनके अनुष्ठान में विघ्न डाल रहे थे। वे दोनों बहुत बलवान भी थे। ये दोनों दैत्य सुन्द और उपसुन्द के पुत्र थे।
इस यात्रा में महर्षि ने राम-लक्ष्मण को कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र और दिव्य विद्याएँ भी दिया था। प्रश्न यह है कि अगर वे इतने सक्षम थे तो स्वयं राक्षसों को क्यों नहीं मार दिया? उन्हें राम की आवश्यकता क्यों पड़ी?
इसका एक जवाब तो स्वयं उन्होने राजा दशरथ को बताया था। उनके अनुसार वे चाहे तो शाप देकर दोनों राक्षसों का अंत कर सकते थे, लेकिन जो अनुष्ठान वे कर रहे थे, उसे शुरू करने के बाद क्रोध करना और शाप देना वर्जित था। दूसरा कारण यह था कि अन्य ऋषि-मुनियों की तरह वे भी राम के धरती पर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे भी उनका दर्शन करना चाहते थे। वे सीता से उनके मिलन का निमित्त भी बनाना चाहते थे।
विश्वामित्र द्वारा दशरथ से राम की माँग करना
उपर्युक्त उद्देश्य से विश्वामित्र अयोध्या आए। उन्होंने राक्षसों द्वारा यज्ञ में बाधा डालने की बात बता कर राजा दशरथ से उनके बड़े पुत्र राम को दस दिनों के लिए माँगा। लेकिन पुत्र के स्नेह के कारण दशरथ इसके लिए पहले तैयार नहीं हुए।
यद्यपि विश्वामित्र ने राम का प्रताप कह कर दशरथ जी को आश्वस्त करना चाहा लेकिन राम से वियोग की आशंका से दशरथ इतने घबड़ा गए कि बेहोश हो गए। होश में आने पर यह कहते हुए कि राम तो अभी सोलह वर्ष के भी नहीं हुए हैं, अभी तक युद्ध विद्या नहीं सीखा है, राम के बदले अपनी सेना राक्षस के वध के लिए देने का प्रस्ताव रखा।
उनके इनकार से विश्वामित्र को क्रोध आ गया। इस पर कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ ने दशरथ को अपने पुत्र राम विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए समझाया। वसिष्ठ ने उन्हें यह भी बताया कि विश्वामित्र जब राजा थे, तब प्रजापति कृशाश्व ने उन्हे सभी अस्त्र-शस्त्र दे दिए थे। प्रजापति कृशाश्व प्रायः सभी अस्त्रों के पिता थे।
महर्षि वसिष्ठ के समझाने पर दशरथ राम को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए तैयार हो गए। लक्ष्मण राम के बिना रहने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए दशरथ ने राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को महर्षि विश्वामित्र को सौंप दिया। सब से विदा लेकर दोनों भाई महर्षि के साथ चल पड़े।
विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण जाते देख कर देवता बड़े प्रसन्न हुए। क्योंकि वे जानते थे कि अब उनका कार्य सफल हो जाएगा।
रास्ते में विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को दिव्य विद्या और दिव्य अस्त्र-शस्त्र देना
अयोध्या से डेढ़ योजन दूर जाने पर सरयू नदी के दक्षिण तट पर विश्वामित्र ने दोनों भाइयों से सरयू जल से आचमन करने के लिए कहा। तत्पश्चात उन्हें बला और अतिबला नाम से प्रसिद्ध मंत्र समुदाय दिया। महर्षि ने दोनों राजकुमारों को इसके लिए योग्य समझ कर यह महती विद्या दिया।
इस मंत्र समुदाय का अभ्यास करने से भूख-प्यास, थकावट और रोग नहीं होता। यहाँ तक कि सोते या असावधान अवस्था में भी राक्षस उनपर हमला नहीं कर पाते। महर्षि ने इन दोनों विद्या को सब प्रकार के ज्ञान की जननी बताया।
रास्ते में वे तीनों अंग देश में रुके। यहीं भगवान शिव के क्रोध से कामदेव (कंदर्प) भस्म हुआ था। जहाँ कंदर्प ने अपना अंग छोड़ा था, वही प्रदेश अंगदेश कहलाया। रात को तीनों ने शिव के उसी तपस्या-स्थल (आश्रम) में विश्राम किया। उस आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने बड़ी प्रसन्नता से उनका स्वागत किया।
अंगदेश से आगे बढ़ने पर मलद एवं करुष जनपद रास्ते में पड़ता था। यहीं ताड़का राक्षसी रहती थी। उसके भय से वह क्षेत्र विरान हो गया था। लोग उधर आते-जाते नहीं थे। राम ने उसका वध कर उस रमणीक क्षेत्र को फिर से भयमुक्त बनाया।
ताटका वध के बाद उस रात विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण ने ताटका वन में ही विश्राम किया। उनके निवास से वह वन शाप मुक्त होकर पुनः रमणीय बन गया। सुबह में विश्वामित्र ने ताटका वध पर अपनी संतुष्टि प्रकट करते हुए दोनों भाइयों को सुयोग्य पात्र समझ कर उन्हे सभी प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र दिया।
इन दिव्य अस्त्रों के नाम थे दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, एन्द्रचक्र, धर्मपाश, कालपाश, वरुणपाश इत्यादि। उन्होने इन्द्र का वज्र, शिव का त्रिशूल और ब्रहमा का ब्रह्मशिर नामक अस्त्र भी दिया। मोदकी और शिखरी नामक दो गदाएँ, सूखी और गीली दो प्रकार की अशनि, पिनाक, नारायणास्त्र, शिखराष्त्र (अग्नि का प्रिय आग्नेय अस्त्र), नन्दन नामक विद्याधरों का अस्त्र इत्यादि अनेक अस्त्र-शस्त्र भी दिया।
श्रीराम विश्वामित्र की आज्ञा अनुसार स्नान करके पूर्व की तरफ मुख करके बैठ गए। विश्वामित्र उन्हे अस्त्र-शस्त्र का उपदेश देने लगे। जैसे ही विश्वामित्र जप करने लगे, सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र स्वतः ही राम के पास आकर प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित हो गए। राम ने उनका स्पर्श कर कहा “आप सब मेरे मन में निवास करें।” अर्थात ये ऐसे अस्त्र-शस्त्र थे जिन्हें साथ लेकर चलना नहीं पड़ता था। बल्कि वे राम में ही समाहित थे और आवश्यकता होने पर प्रकट हो जाते थे।
इस सभी दुर्लभ अस्त्रों को प्राप्त करने के बाद तीनों ने पुनः यात्रा शुरू किया। रास्ते में राम के पूछने पर विश्वामित्र ने सभी अस्त्र-शस्त्रों के उपयोग की विधि और उससे संबंधित सावधानी बताया।
इस प्रकार रास्ते में अनेक प्रकार के कार्य करते हुए और अनेक प्रकार के पौराणिक चर्चा करते हुए वे तीनों विश्वामित्र के आश्रम, जिसका नाम सिद्धाश्रम था, पहुँच गए। सिद्धाश्रम वर्तमान में बिहार राज्य के बक्सर जिला में स्थित था।