हस्तिनापुर के राजा पांडु शिकार करने वन में गए थे लेकिन गलती से एक मुनि युगल की हत्या होने और उनसे शाप मिलने के बाद वे वन में ही रह कर तपस्वी की तरह कठोर जीवन बिताने लगे। उनकी दोनों पत्नी कुंती और माद्री भी उनके साथ ही थीं। वे तीनों पहले नागशत नामक पर्वत पर गए। इसके बाद चैत्ररथ नामक वन में जाकर कालकूट और हिमालय पर्वत को लांघते हुए वे गंधमादन पर्वत पर चले गए। इसके बाद वे सब शतश्रीङ्ग पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उस वन में रहने वाले ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण आदि इन तीनों की तपस्या और सुहृदय व्यवहार के कारण उनसे बहुत प्रेम करते थे।
पाण्डु द्वारा पुत्र प्राप्ति की इच्छा
बहुत समय इसी प्रकार बीत गया। एक बार ब्रह्मलोक जाते हुए ऋषि-मुनियों से पुत्र प्राप्ति के महत्त्व को सुनकर पांडु के मन में पुत्र की लालसा हुई। उन्होने ऋषियों से पुत्र के लिए प्रार्थना किया। ऋषियों ने उन्हे उज्ज्वल कीर्ति वाले पुत्रों का योग बताया।
कुंती द्वारा वरदान के विषय में बतलाना
पाण्डु यह सुनकर बहुत सोच में पड़ गए क्योंकि न तो ऋषियों की भविष्यवाणी झूठी हो सकती थी न ही उनका शाप। उन्होने एक दिन इसकी चर्चा अपनी बड़ी पत्नी कुंती से की। इस पर कुंती ने विवाह से पूर्व ऋषि दुर्वासा द्वारा उसे दिए गए मंत्र के विषय में बताया। इस मंत्र के प्रभाव से कोई भी देवता आकर अपने जैसा रूप-गुण से सम्पन्न पुत्र देने के लिए विवश हो जाते।
कुंती को धर्मराज द्वारा पुत्र की प्राप्ति
इस वरदान के विषय में सुन कर पाण्डु बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने कुंती से देवताओं की कृपा से पुत्र प्राप्त करने के लिए कहा। दोनों ने विचार किया कि सबसे बड़े पुत्र को धर्म का ज्ञान विशेष रूप से होना चाहिए। इसलिए पहला पुत्र धर्मराज के वरदान से उत्पन्न किया जाय।
कुंती ने ऋषि दुर्वासा द्वारा बताई गई विधि से धर्म देवता का आवाहन किया। धर्म देव की कृपा से उन्होने गर्भ धारण किया। समय आने पर जब सूर्य तुला राशि में विद्यमान थे, शुक्ल पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पंचमी तिथि को अभिजीत नामक आठवें मुहूर्त में युधिष्ठिर का जन्म हुआ। पुत्र जन्म के तुरंत बाद आकाशवाणी हुई “यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वी पर पराक्रमी एवं सत्यवादी राजा होगा। पाण्डु का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ के नाम से विख्यात हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याति प्राप्त करेगा। यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा।”
गांधारी यद्यपि कुंती से एक साल पहले गर्भवती हो गई थी लेकिन जन्म पहले युधिष्ठिर का हुआ था। युधिष्ठिर के दो साल बाद जिस दिन शतश्रीङ्ग पर्वत के वन में भीम का जन्म हुआ ठीक उसी दिन हस्तिनापुर में दुर्योधन का जन्म हुआ था।
वायुदेव से भीम का जन्म
धर्मात्मा पुत्र को पाकर कुंती और पाण्डु बहुत खुश थे। अब पाण्डु ने कुंती से क्षत्रियों के अनुकूल एक बलशाली पुत्र उत्पन्न करने का आग्रह किया। इस पर कुंती ने वायुदेव का आवाहन किया। वायुदेव के प्रकट होने पर कुंती ने उनसे ऐसा पुत्र मांगा जो ‘महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमंड को चूर करने वाला हो।’ समय आने पर भीम का जन्म हुआ। भीम के जन्म पर आकाशवाणी हुई ‘यह कुमार समस्त बलवानों में श्रेष्ठ है।’
जन्म लेने के दसवें दिन ही शिशु भीम माता की गोद से उस समय गिर गए जब माता अचानक बाघ को देख कर उठ खड़ी हुई। हालांकि बाघ को पांडु ने तीर से मार डाला। लेकिन आश्चर्यजनक बात यह रही कि जिस चट्टान पर शिशु गिरा वह चट्टान चूर-चूर हो गया पर शिशु को कोई हानि नहीं हुई।
इंद्र से अर्जुन का जन्म
दो पुत्रों को पाकर पाण्डु बहुत प्रसन्न थे। अब उन्होने इंद्र के समान पराक्रमी पुत्र की कामना की। पतिव्रता कुंती ने विधिपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया। पाण्डु ने भी इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए एक वर्ष तक कठोर व्रत का पालन किया। फाल्गुन महीने में पूर्वफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के संधिकाल में दिन के समय इस बालक का जन्म हुआ। इस कारण इसका नाम ‘फाल्गुन’ हुआ। उसके जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई ‘यह बालक कार्तवीय अर्जुन के समान तेजस्वी, भगवान शिव के समान पराक्रमी और देवराज इन्द्र के समान अजेय होकर तुम्हारे यश का विस्तार करेगा। जैसे भगवान विष्णु ने वामन रूप में प्रकट होकर देवमाता अदिति के हर्ष को बढ़ाया था, उसी प्रकार यह विष्णुतुल्य अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ाएगा।’
यह आकाशवाणी सुन कर शतश्रीङ्ग निवासी तपस्वी ऋषि-मुनियों, देवताओं, गन्धर्वों, अप्सराओं आदि को बड़ा हर्ष हुआ। सबने वहाँ आकर अपना आनंद प्रकट किया।
कुंती का और अधिक संतान उत्पन्न करने से मना करना
तीन उत्तम पुत्रों को पाकर पाण्डु का पुत्रों के लिए लालच और बढ़ने लगा। वह अपनी पत्नी कुंती से कुछ कहना चाहते थे। कुंती उनके मन्तव्य को समझ कर बोली ‘आपत्ति काल में भी तीन से अधिक संतान उत्पन्न करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं दी है। आप धर्म को जानते हुए भी अब फिर मुझे संतानोत्पत्ति के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं।’ पाण्डु ने भी सहमति जताया।
नकुल और सहदेव का जन्म
गांधारी को सौ और कुंती को तीन पुत्र हो चुके थे। लेकिन माद्री को अभी तक कोई संतान नहीं थी। माद्री ने एक दिन अपने पति पाण्डु से संतान के लिए अपनी इच्छा जताई। पाण्डु ने इसके लिए कुंती से आग्रह किया। कुंती ने माद्री से किसी देवता का आवाहन करने के लिए कहा। माद्री ने अश्विनी कुमार का स्मरण किया। दोनों जुड़वा देवों की कृपा से माद्री को दो जुड़वा बेटे हुए जिनका नाम रखा गया नकुल और सहदेव। दोनों भाइयों का रूप अनुपम था। उनके जन्म पर आकाशवाणी ने कहा ‘ये दोनों बालक अश्विनी कुमारों से भी बढ़ कर बुद्धि, रूप और गुणों से सम्पन्न होंगे। अपने तेज और बढ़ी-चढ़ी रूप-संपत्ति द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे।’
पांचों भाइयों का नामकरण संस्कार
इसके बाद शतश्रीङ्ग के निवासी ऋषि-मुनियों ने पांचों भाइयों का उनके रूप-गुण-कर्म के आधार पर विधिवत नाम कारण किया। ये पांचों भाई प्रति एक-एक वर्ष पर उत्पन्न हुए थे। अर्थात उन्हें युधिष्ठिर से एक साल छोटे भीम, उनसे एक साल छोटे अर्जुन और उनसे एक साल छोटे नकुल और सहदेव थे।
शतश्रीङ्ग निवासियों को ये पांचों भाई बहुत ही प्रिय थे। वे सभी उन्हें जन्म काल से ही अपने पुत्रों की तरह मानते थे। पांडु का पुत्र होने के कारण ये सभी भाई पांडव कहलाए। यह नाम उन्हें वहाँ के ऋषि मुनियों ने ही दिया था।
कुंती का वास्तविक नाम था पृथा। अपने पिता कुंतिभोज के नाम पर वह कुंती कहलाई। इसलिए उसके तीनों पुत्रों- युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को ‘पार्थ’ एवं ‘कौंतेय’ भी कहा गया। नकुल और सहदेव अपनी माँ के नाम पर ‘माद्रेय’ कहे जाते थे।
पांडवों के मुंडन, जनेऊ, उपाकर्म, वेदध्ययन आदि संस्कार
पाण्डु और उनकी पत्नियों के वनवासी तपस्वी जीवन के समाचार से हस्तिनापुर में तो दुख था ही कुंती के जैविक माता-पिता और सगे-संबंधी मथुरा के यादव वंशी भी बड़े दुखी थे। आने जाने वाले लोगों द्वारा इन दोनों स्थानों को उनकी खबर कभी-कभार मिल जाया करती थी। उनके पुत्र होने के खबर से सभी बहुत खुश हुए। कुंती के भाई वसुदेव जी ने वृष्णि यादवों के से विचार-विमर्श कर शतश्रीङ्ग वन में पांडवों का संस्कार करने के लिए अपने पुरोहित काश्यप को बहुत सारे उपहार के साथ भेजा।
वसुदेव जी द्वारा भेजे गए काश्यप पुरोहित ने ही पांचों पांडवों के मुंडन, जनेऊ, उपाकर्म, वेदाध्ययन आदि संस्कार सम्पन्न करवाएँ। शीघ्र ही पांचों भाई वेदाध्ययन में पारंगत हो गए। उसी वन में रह कर तपस्या करने वाले शर्याति वंश के एक राजा शुक्र ने पांचों भाइयों को शस्त्र विद्या आदि की शिक्षा दिया। भीमसेन गदा संचालन में, युधिष्ठिर तोमर फेंकने में, अर्जुन धनुर्विद्या में और नकुल-सहदेव ढ़ाल-तलवार चलाने में विशेष निपुण हुए।