पांडु, कुंती और माद्री अपने पांचों पुत्रों के साथ सभी राजकीय सुख-सुविधाओं से दूर वन में रहते हुए कठोर तपस्वी जैसा जीवन बिता रहे थे। फिर भी पांचों भाइयों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण मिला। उन सबमें मानवीय गुण भी भरे हुए थे जिस कारण स्थानीय लोगों में यह परिवार बहुत लोकप्रिय था। समय अच्छे से व्यतीत हो रहा था। लेकिन मृग बने ऋषि के शाप के प्रभाव के कारण पांडु की मृत्यु हो गई। यह कथा इस प्रकार है।
पांडु की मृत्यु
उस दिन पांडु के तीसरे पुत्र अर्जुन का चौदहवाँ वर्ष पूर्ण हुआ था अर्थात उनका 15वां जन्मदिन था। ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया। कुंती ब्राह्मणों को भोजन कराने में व्यस्त हो गईं। इसी बीच पांडु माद्री को लेकर वन घूमने निकल पड़े। यह चैत्र और वैशाख महीने का संधि काल था। इस समय वन नवीन पुष्पों और पत्तों से शोभायमान हो रहा था। भावीवश पांडु एकांत में काम मोहित हो गए। उन्हें ऋषि के शाप की याद न रही। पत्नी के बार-बार मना करने पर भी वह नहीं माने। ऋषि के शाप वश समागम के समय ही उनकी मृत्यु हो गई।
पांडु की मृत्यु पर शोक
राजा का मृत शरीर देख कर माद्री रोने लगी। तभी वहाँ कुंती पुत्रों के साथ वहाँ आ गईं। उनकी मृत्यु की खबर सुन कर उस वन में रहने वाले लोग शीघ्र ही वहाँ एकत्र हो गए। सभी विलाप कर रहे थे। ऋषि-मुनियों के समझाने पर भी कुंती और माद्री का विलाप बंद नहीं हो रहा था। पांचों भाई संज्ञा शून्य से हो गए थे।
माद्री की मृत्यु
कुंती और माद्री दोनों पति के साथ अपनी जीवन समाप्त कर लेना चाहती थी। दोनों के अपने-अपने तर्क थे। सवाल था तब बच्चों का क्या होता। ऋषि-मुनि दोनों को देहत्याग नहीं करने के लिए समझा रहे थे।
माद्री को विशेष शोक था क्योंकि उन्हीं के कारण उसके पति की मृत्यु हुई थी। अंततः वह अपने जुड़वा बच्चों को कुंती को सौंप कर सबसे अनुमति लेकर पति के साथ उसी चिता में जल कर मर गई।
माद्री की मृत्यु को सती प्रथा के समर्थन की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि वह दुख और अफसोस के कारण मरी थी। फिर शाप भी ऐसा ही था। मृग रूप धारी ऋषि अकेले नहीं बल्कि उनकी पत्नी भी पांडु के बाणों से मरे थे। इसलिए उन्होने शाप दिया था कि जिस पत्नी के कारण तुम मरोगे वह भी तुम्हारे साथ स्वर्ग तक जाएगी। वहाँ उपस्थित ऋषि-मुनि उन्हें जीवित रह कर पतिव्रत और मातृ धर्म का पालन करने के लिए समझा रहे थे। किसी ने देहत्याग का समर्थन नहीं किया।