सीता के निर्वासन के बाद राम व्यक्तिगत रूप से व्यथित थे। अब वे अपना अधिकांश समय राजकार्य और धर्म कर्म में व्यतीत करने लगे।
मुनियों के शिष्टमंडल का आगमन
एक दिन च्यवन मुनि के साथ लगभग सौ ऋषि-मुनि राम से मिलने आए। ये सब यमुना तट के निवासी थे। इन सब ने लवणासुर से रक्षा के लिए राम से प्रार्थना किया। यमुना तट वासी ऋषि-मुनि अनेक राजाओं से रक्षा के लिए माँग कर चुके थे। लेकिन लवण के आतंक का अंत नहीं हुआ था। अतः वे सब राम के पास अपनी रक्षा करने की प्रार्थना लेकर आए थे।
लवणासुर कौन था?
लवणासुर रावण की मौसेरी बहन कुम्भीनसी का पुत्र था। उसके पिता का नाम था मधु। मधु दैत्य का देवताओं से मैत्रीपूर्ण संबंध थे। उसे भगवान शिव से एक अस्त्र (शूल) प्राप्त हुआ। शिव के अनुसार मधु के बाद यह शूल उसके पुत्र के पास भी रहता।
मधु-कुंभीनसी के पुत्र का नाम था लवण। लवण अपने पिता मधु के विपरीत अत्याचारी और क्रूर स्वभाव का था। मधु अपने बेटे के इस व्यवहार को देख कर दुखी होता था। जब उसके समझाने पर भी लवण में कोई सुधार नहीं हुआ तब मधु अपना देश छोड़कर समुद्र में रहने चला गया। उसने अपना शूल अपने पुत्र को दे दिया।
इस शूल के कारण लवण अजेय हो गया था। वह ऋषि-मुनि और निर्दोष लोगों के मार कर खा जाता था। जो उसे रोकना चाहता था, उसे उस शूल से मार डालता था।
लवणासुर का वध कर यमुना तट पर नए राज्य बसाने के लिए शत्रुघ्न को जिम्मेदारी
राम ने अपने छोटे भाई शत्रुघ्न को लवणासुर का अंत करने भेजा। उन्हे यह भी आदेश दिया कि यमुना के तटवर्ती क्षेत्र जहाँ अभी लवण का राज्य था, उस क्षेत्र को उससे मुक्त करने के बाद अपना राज्य स्थापित कर लें और न्याय सहित वहाँ राज्य करें।
शत्रुघ्न का राज्याभिषेक
चूंकि राम ने शत्रुघ्न को यमुना के तटवर्ती क्षेत्र जहां लवणासुर का राज्य था, में एक नया और सुव्यवस्थित राज्य स्थापित करने का आदेश दिया था। इसलिए इस राज्य के राजा के रूप में उन्होने अयोध्या में ही उनका विधिवत रूप से राज्याभिषेक कर दिया।
लवणासुर वध के लिए योजना
राम ने लवणासुर का अंत करने के लिए आवश्यक सावधानी भी शत्रुघ्न को बताया। सूचना के अनुसार वह असुर जिस शूल के बल पर अजेय था, उसे वह अपने घर पर ही रखता था। इसलिए योजना यह बनी कि जब वह भोजन संग्रह करके अपने नगर, जिसका नाम उसने अपने पिता के नाम पर मधुरा पुरी रखा था, में वापस आए तो द्वार पर ही शत्रुघ्न उसे युद्ध के लिए ललकारे। क्योंकि उस समय शिव का वह शूल उसके पास नहीं होगा।
राम ने उसे मारने के लिए शत्रुघ्न को एक दिव्य अस्त्र भी दिया, जिससे भगवान विष्णु ने मधु और कैटभ दैत्यों को मारा था।
राम के आदेश के अनुसार शत्रुघ्न को सेना लेकर जाना था। लेकिन वे युद्ध अकेले ही करते। सेना उनसे पहले जाती और जब वे लवण से युद्ध करते तो वह यमुना के दक्षिण तट पर रहती।
आदेश के अनुसार सेना पहले चली। एक महीने बाद शत्रुघ्न यमुना तट के लिए अकेले चले।
शत्रुघ्न का वाल्मीकि के आश्रम में रुकना
अयोध्या से यमुना तट के मधुरापुरी (मधुपुरा) जाते समय शत्रुघ्न रास्ते में गंगा पार कर वाल्मीकि के आश्रम में रुके। वाल्मीकि का रघुकुल से पुराने और अच्छे संबंध थे। उन्होने शत्रुघ्न का स्वागत किया।
संयोग से जिस रात शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रम में रुके थे, उसी रात सीता ने दो जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया। लगभग आधी रात होने पर कुछ मुनि कुमार वाल्मीकि के पास आए और सीता के पुत्र होने का शुभ समाचार सुनाया। वृदधा स्त्रियाँ वाल्मीकि के निर्देश के अनुसार राम, सीता और गोत्र का नाम लेकर बालकों की रक्षा के लिए उनका मार्जन करने लगी। ये नाम सुन शत्रुघ्न भी वहाँ आ गए। उन्हे सीता के दो पुत्र होने की सूचना मिली। वे यह सुनकर बड़े हर्षित हुए और सीता की पर्ण कुटी मे जाकर हर्ष प्रकट किया।
वाल्मीकि, शत्रुघ्न और अन्य लोग इतने प्रसन्न थे कि सावन की उस रात को कोई नहीं सोया। अगले दिन शत्रुघ्न फिर आगे चले।
शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर का वध
राम के बताए हुए विधि से शत्रुघ्न ने लवणासुर का वध कर दिया। उनके इस महान कार्य पर देवताओं ने उन्हे उस नगर के मनोहर राजधानी के रूप में बस जाने का वरदान दिया। लवणासुर के मरते ही शत्रुघ्न की जो सेना यमुना के पार थी, वह उनके पास आ गई।
शत्रुघ्न द्वारा यमुना तट पर शूरसेन राज्य की स्थापना
इसके बाद शत्रुघ्न वहाँ बारह वर्षों तक रहे। उन्होने अनथक परिश्रम से वहाँ एक सुंदर जनपद बनाया जिसका नाम हुआ शूरसेन। इसकी राजधानी थी मधुरा पुरी। यह मधुरापुरी ही बाद में मथुरा कहलाया। इस राज्य की स्थापना से यमुना तट के निवासियों को एक सुव्यवस्थित शासन और सुरक्षा मिली। यहाँ के राजा के रूप में अयोध्या में राम पहले ही उनका अभिषेक कर चुके थे।
शत्रुघ्न का अयोध्या आना और रास्ते में वाल्मीकि के आश्रम में रुकना
शत्रुघ्न को अपने परिवार और भाइयों की याद आ रही थी। इसलिए राम के आदेशानुसार जनपद बस जाने के बाद वे सब से मिलने के लिए एक छोटी सैन्य टुकड़ी के साथ अयोध्या आए। रास्ते में वे फिर वाल्मीकि के आश्रम में रुके। यहाँ उन्होने लव-कुश द्वारा रामायण का सुमधुर गायन सुना। लेकिन उन्होने इसे गाने वाले के विषय में पूछताछ करना उचित नहीं समझ कर नहीं पूछा।
वाल्मीकि से विदा लेकर शत्रुघ्न अयोध्या पहुँचे। वहाँ सब से मिलकर राम की आज्ञा अनुसार सात दिन बाद वे फिर मधुपुरा के लिए लौट गए। तब से शत्रुघ्न शूरसेन जनपद में ही रहे। कभी-कभी अपने परिवार से मिलने अयोध्या आते रहते थे। लेकिन जब राम के पृथ्वी छोड़ कर जाने का समाचार उन्होने सुना, तब अपने दोनों पुत्रों का राज्याभिषेक कर वे जल्दी से अयोध्या आ गए और अपने भाइयों के साथ ही वे भी स्वधाम गए।