कृष्ण की रास लीला क्या मर्यादा का उल्लंघन था?-भाग 26                   

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कृष्ण के रास लीला की विभिन्न व्याख्याएँ        

रास लीला की अनेक तरह से व्याख्या की गई है। रास शब्द रस से निकला है। इसे भगवान के लीलरूपी रस या उनके कला का रस माना जा सकता है। रास लीला के समय आयु के अनुसार श्रीकृष्ण अभी बालक ही थे। गोपियाँ उनसे उम्र में बड़ी थीं। अतः साधारण स्त्री-पुरुष के क्रीड़ा के अर्थ से अलग व्याख्या संभव है।

आध्यात्मिक रूप से इसकी व्याख्या आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में की गई है। जैसे श्रीकृष्ण की बांसुरी की धुन सुनकर गोपियाँ जैसी थी, उसी अवस्था में अपने सारे कार्य छोड़ कर चली आई थीं, यह परमात्मा की आवाज पर आत्मा के आने की प्रतीकात्मक कथा माना गया है।

एक व्याख्या यह भी है कि जिस एक वर्ष के अंदर ब्रहमाजी ने सभी गोपों को छुपा कर रखा था, उस बीच में जिन भी गोपियों का विवाह हुआ वह सब वास्तव में विभिन्न गोपों के रूप में श्रीकृष्ण से ही हुआ था।

श्रीकृष्ण अन्य जीवधारियों की तरह शरीरधारी नहीं है। वह अरूप है। उनका रक्त-मांस का जो शरीर दिखता है, वह वास्तव में नहीं है। उनके समस्त कार्य उनके संकल्प से हुए हैं शरीर से नहीं। दूसरी ओर गोपियों की बातों से स्पष्ट है कि वे कृष्ण के अंतर्यामी, योगेश्वर परमात्मा के रूप को जानती थीं। उहोने मधुर भाव से श्रीकृष्ण से प्रेम किया था, जिसमे दास्यभाव भी था। यह निःस्वार्थ और निष्पाप था।

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रास लीला के संबंध में राजा परीक्षित और शुकदेवजी संवाद

इस प्रसंग को सांसारिक दृष्टि से देखने वाले लोग इस विषय में कई प्रश्न करते है। इस संबंध में भागवत की कथा सुनने वाले राजा परीक्षित ने स्वयं शुकदेव जी से प्रश्न किया था। उनके अनुसार “गोपियाँ तो कृष्ण को अपना प्रियतम मानती थी। उनके प्रति उनमें ब्रह्म भाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणों से आसक्त दिखती है। ऐसी स्थिति मे उनके लिए गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई?”

इसका उत्तर देते हुए शुकदेव जी ने उन्हे याद दिलाया था कि शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेषभाव रखने पर भी प्राकृत शरीर को छोड़ कर अप्राकृतिक शरीर से उनका पार्षद हुआ। इसलिए भगवान से केवल संबंध हो जाना ही पर्याप्त होता है भले ही वह संबंध द्वेष, क्रोध, भय, स्नेह, नातेदारी या काम का ही क्यों न हो। चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य-निरंतर अपनी वृतियाँ जोड़ दी जाय, वे जुड़ती तो भगवान से ही है। इसलिए वृतियाँ भगवानमय हो जाती है और उस जीव को भगवान की प्राप्ति होती है।

परीक्षित ने पुनः पूछा कि भगवान ने अपने अंश सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतार का उद्देश्य ही था धर्म की स्थापना तो फिर उन्होने स्वयं धर्म के विपरीत पर-स्त्री का स्पर्श कैसे किया? यद्यपि श्रीकृष्ण पूर्णकाम है और उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है, फिर भी उन्होने यह निंदनीय कार्य किस कारण से किया?

श्री शुकदेव जी ने उसका उत्तर इस प्रकार दिया “गोपियों, उनके पतियों और संपुत्न शरीरधारियों के अन्तःकरण में जो आत्मरूपी विराजमान है, जो सबके साक्षी और परमपति है, वही भगवान अपना दिव्य शरीर प्रकट कर यह लीला कर रहे थे। इसे सामान्य पुरुष की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि वे सर्व शक्तिमान है, कामना रहित है, जैसे भगवान शिव ने हलाहल पी लिया लेकिन अगर कोई अन्य यह करे तो वह जलकर भस्म हो जाएगा।”      

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