साल 1942 का एक सामान्य दिन, उत्तराखंड यानि तब के संयुक्त प्रदेश के जिला चमोली में त्रिशूल पर्वत शिखर के पास नन्दा देवी नेशनल पार्क में एक ब्रिटिश फॉरेस्ट रेंजर अपनी नियमित ड्यूटी के दौरान गश्त कर रहा था। इस रेंजर का नाम था हरी किशन मधवाल। उसे अचानक एक झील में बहुत से नर कंकाल दिखाई दिए। उसने तुरंत इसकी रिपोर्ट अपने डिपार्टमेन्ट को दिया। यह ऐसा झील था जो साल के अधिकांश समय में बर्फ से ढंका रहता था। स्थानीय लोगों को इसके अंदर ऐसा कुछ होने का पता नहीं था। इसलिए पहले तो सरकार को लगा कि यह जापानी सैनिकों के कंकाल थे। लेकिन बाद में यह अनुमान गलत साबित हुआ क्योंकि ये युद्ध से बहुत पहले के कंकाल थे।
इस संबंध में अनेक सवाल थे जिन्हें जानने के लिए लोग उत्सुक थे। सबसे पहला, ये कंकाल किन लोगों के थे? ये कैसे मारे गए? ये सब एक साथ यानि एक समय पर मरे थे या अलग-अलग समय पर? इतनी बड़ी संख्या में मानव कंकाल वहाँ पड़े थे, लेकिन स्थानीय लोगों को कुछ पता क्यों नही चल पाया? इनमें से कुछ कंकालों के डीएनए परीक्षण से बहुत कुछ इनके बारे में पता चला है लेकिन फिर भी बहुत से सवाल अभी भी जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
वैज्ञानिक इन कंकालों के परीक्षण से किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, ये हम आगे बात करेंगे। पर उससे पहले देखते हैं की यह झील है कहाँ?
रूपकुंड झील कहाँ हैं?
यह वर्तमान में उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित है। इसका नाम है रूपकुंड झील। यह समुद्र तल 16,500 फीट या 5,029 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय के त्रिशूल और नन्दघुंगटी शिखर के पास है। यह स्थान तिब्बत से करीब 170-75 किमी दूर है। यह ग्लेशियर झील है जो साल के अधिकांश समय बर्फ से ढंका रहता है। ग्लेशियर झील होने के कारण मौसम के अनुसार इस झील का आकार थोड़ा-बहुत घटता-बढ़ता रहता है। लेकिन एवरेज 40 मीटर का डायमीटर रहता है इस झील का।
यहाँ आसपास आबादी नहीं है। नन्दा देवी का पवित्र मंदिर यहाँ से पास ही है।
उन कुछ दिनों में जब बर्फ पिघला हुआ होता है, इसमें मनुष्यों की बहुत सी हड्डियाँ दिखती हैं। अभी तक इससे 800 से ज्यादा लोगों के कंकाल मिल चुके हैं। इन हड्डियों के कारण यह कंकाल झील या स्केलटन लेक के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया है। इसे mystry लेक यानि रहस्यमय झील भी कहा जाता है।
साफ पानी के तल में इतने कंकालों का होना एक भयावह और रोमांचक दृश्य प्रस्तुत करता है। इसलिए वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के अलावा आम सैलानियों के लिए भी यह अट्रैक्शन का पॉइंट बन गया है।
कब मारे गए थे ये? कौन थे ये?
इनमें से कुछ हड्डियों का 2019 में डीएनए सैंपलिंग और कार्बन डेटिंग किया गया। इससे जो पहली बात पता चली है वह है कि ये सब एक समय में नहीं बल्कि अलग-अलग समय में मारे गए हैं। यह समय अवधि करीब 1000 वर्षों तक हो सकती है। यानि ये सभी 800 ई से 1800 ई के बीच यानि कि 1000 वर्षों के दौरान मारे गए थे। कम से कम 3 ऐसे ग्रुप का पता चला है जो अलग-अलग समय में और अलग-अलग कारणों से मरे थे।
दूसरा, इन मरने वालों में सभी एक ही समुदाय या नस्ल के नहीं थे। इनमें चीन, कोरिया आदि साउथ एशिया ही नहीं बल्कि यूरोप के लोग जैसे ग्रीस और क्रीट के लोग भी शामिल थे।
2019 में जिन 38 हड्डियों की जेनेटिक डिकोडिंग की गई उसमें से 15 महिलाओं के पाए गए।
2003 में नेशनल ज्योग्राफिक ने यहाँ से 30 कंकाल निकाला था। इन में से कुछ में उस समय भी मांस के कुछ टुकड़े लगे हुए थे हड्डियों से। शायद बर्फ के कारण यहाँ शवों के खराब होने की गति बहुत धीमी रही हो।
इंसानी हड्डियों के अलावा इस झील से चमड़े के चप्पल, अंगूठी, आदि सामान भी मिले हैं।
एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 1950 के दशक में कुछ हड्डियों को निकाल कर देहारादून में अपने म्यूजियम में रखा। यह पाया गया कि ये हड्डियों 300 अलग-अलग लोगों की थीं। कुछ कंकालों की खोपड़ी टूटी हुई थी। इससे यह भी कहा जाता है कि इन्हें कहीं और मार कर वहाँ डाल दिया गया हो। पर इतने प्रतिकूल भौगोलिक स्थिति वाले स्थान पर कहीं दूर से शव लाकर रखना व्यावहारिक नहीं लगता है। फिर बर्फीली आँधी से भी यह फ्रेक्चर संभव है।
इन वैज्ञानिक निष्कर्षों से कई पुरानी धारणाएँ गलत साबित हो गई। जैसे ये 9वीं शताब्दी में तीर्थयात्रा के लिए आने वाले एक भारतीय राजा, उसकी रानी और सेवकों के हैं जो किसी बर्फबारी के दौरान दफन हो कर यहीं मर गए। ये किसी प्रकृतिक हादसे के शिकार हुए, ये वे भारतीय सैनिक हो सकते हैं जो 1841 के तिब्बत पर चढ़ाई के लिए गए थे, यह कब्रगाह हो सकता है, इत्यादि। ये सभी बाते गलता साबित हुई हैं। क्योंकि अब यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि ये न तो एक समय मरे थे और न ही एक नस्ल के थे। चीन, कोरिया और ग्रीस से यहाँ दफनाने के लिए तो लोग आए नहीं होंगे। फिर यहाँ विदेशी लोगों का आना-जाना भी ज्यादा नहीं था।
अभी तक हुए खोज
इस रहस्यमय झील के रहस्यों को सुलझाने के लिए राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास हुए हैं। टुरिस्ट और रिसर्चर द्वारा बड़ी संख्या में यहाँ से हड्डियों को ले जाने के कारण इनकी संख्या कम हो गई है और सरकार इस झील के संरक्षण का प्रयास कर रही है।
2004 में भारत और यूरोपीय वैज्ञानिकों के संयुक्त दल ने इस पर एक रिसर्च किया था। दुनिया भर के अन्य अनेक संस्थाओं ने इस पर रिसर्च किया है। कई थियरि दिए गए हैं लेकिन इनमें से कोई भी सभी शंकाओं का समाधान नहीं करते।
एक थियरि यह है कि ये लोग बर्फीले तूफान और ओलावृष्टि में फंस कर मर गए होंगे। भूस्वखलन के साथ उनके शव बह कर इस झील में आ गए। लेकिन इसके विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है कि इस क्षेत्र से कोई अंतर्राष्ट्रीय या व्यापारिक मार्ग गुजरता हो। तो फिर इतने अलग-अलग नस्ल के लोग उस क्षेत्र में क्या करने गए थे। स्थानीय नन्दा देवी महोत्सव प्रति 12 वर्षों में एक बार मनाया जाता था, पर उसमें भी स्थानीय लोग ही शामिल होते थे।
मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट 2019 के अपने रिसर्च में इसी नतीजे पर पहुंचा कि यह अलग-अलग नस्ल के लोग लगभग 1000 वर्ष के टाइम स्पैम के दौरान मारे गए। नेचर कम्युनिकेशन भी इसी नतीजे पर पहुंचा कि उस समय हिमालय क्षेत्र में भूमध्य सागर के आसपास के प्रवासी लोग उपस्थित थे। अन्य शोध भी लगभग इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। लेकिन पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्य इसके पक्ष में नहीं हैं। 7 दिसंबर 2020 के अपने के आर्टिकल में ‘द न्यू यार्कर’ यही सवाल उठता है Genetic analysis of human remains found in the Himalayas has raised baffling questions about who these people were and why they were there यानि ये लोग कौन थे और वहाँ क्यों थे? स्पष्ट: डीएनए और कार्बन डेटिंग जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं ऐतिहासिक तथ्य उससे सहमत नहीं हैं।
यहाँ इस बिन्दु पर एक सिद्धान्त आता है जो इसका संबंध जोड़ता है कैलाश पर्वत और शंभाला के रहस्यों से।
इसके अनुसार हिमालय के इस क्षेत्र में विदेशी नहीं आते थे लेकिन कैलाश मानसरोवर और शंभाला के लिए बहुत से तीर्थयात्री, पर्वतारोही एवं शोधकर्ता विभिन्न देशों से आते थे। वहाँ के स्थानीय लोगों के अनुसार इनमें से बहुत से लोग गायब हो गए थे, जिनका कभी कुछ पता नहीं चल सका। यह संभव है कि ये वो लोग हों जो कैलाश और शंभाला के रहस्यों की या उसके लिए रास्तों की खोज कर चुके हों, लेकिन शंभाला के लोग नहीं चाहते थे कि उनके अस्तित्व के बारे में बाहरी लोगों को पता चल सके। इसलिए उन्होने उन्हे मार डाला हो। शंभाला के विषय में पिछले आलेख में विस्तार से बताया गया है।
अब सवाल है अगर शंभाला या कैलाश के रहस्यों की रक्षा करने वाले लोगों ने उन्हें वहाँ मारा तो फिर वहाँ से करीब 170-75 किमी दूर यहाँ लाकर क्यों और कैसे रखा? यह क्षेत्र बर्फ और पहाड़ों से ऐसे ढंका हुआ है इन रास्तों को तय करना बहुत ही कठिन है।
यति
यहाँ फ्रेम में एक और कैरेक्टर आता है जिसका नाम है यति। भारत, नेपाल, तिब्बत और आसपास के देशों की कहानियों में यति नामक एक मिथकीय प्राणी की चर्चा है। इसके अनुसार यति मनुष्यों के जैसा लेकिन उससे बहुत अधिक लंबा, तगड़ा, और शरीर पर अधिक रोएँ वाला बहुत ही शक्तिशाली प्राणी है। इसे ठंढ और बर्फ से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह साधारण मनुष्यों के संपर्क में आने से बचना चाहता है। इसे प्रायः कैलाश के आसपास या हिमालय के बर्फीले दुर्गम स्थानों में देखा गया है।
शंभाला की तरह खुद यति का अस्तित्व भी साबित नहीं हुआ है। इसे सच मनाने वाले लोग प्रमाण के रूप में तिब्बत के कुछ मठों में रखे पुरानी हड्डियों, जिसे यति के होने का दावा किया जाता है, कुछ फुटप्रिंट्स यानि पैरों के निशान, यात्रियों के विवरण और कुछ धुंधले से फोटो को दिखाते हैं।
लेकिन वैज्ञानिक जांच में ये सभी प्रमाण किसी साधारण इंसान के या किसी जानवर के पाए गए हैं। किसी विशेष प्रजाति या अलग प्राणी के होने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। इसलिए कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यात्रियों ने बर्फीले भालुओं को देखा होगा जिसे गलती से इंसान जैसा समझ बैठा होगा क्योंकि भालू भी कभी-कभी दो पैरों पर चलते है। अगर वे चार पैरों पर चलते भी हैं तो अपना पिछला पैर अगले पैर के निशान पर रखते हैं जिससे बर्फ में बनने वाले पैरों के निशान एक नजर में ऐसा लगता है कि कोई दो पैरों पर चल कर गया हो।
खैर, जो लोग शंभाला और यति के रहस्यों को सच मानते हैं उनके अनुसार ये वास्तव में कैलाश और शंभाला के रखवाले हैं। समान्यतः वे मनुष्यों से दूर रहते हैं और उन्हे नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते। लेकिन अगर उन्हें लगे कि उससे शंभाला और कैलाश को कुछ खतरा हो सकता है या उसके बारे में दुनिया को पता चल सकता है तो हो सकता है कि ऐसे लोगों को उन्होने मार डाला हो। वे इतने शक्तिशाली होते हैं कि साधारण मनुष्यों को मारना उनके लिए बिल्कुल छोटा सा काम है।
ये लोग ये भी याद दिलाते हैं कि कालचक्र यान धर्म के कुछ ग्रन्थों में शंभाला की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि वे लोग खुद दुनिया की नजर से दूर रहते हुआ दुनिया की खबर रखते हैं। ये सुरंगों द्वारा पृथ्वी के अन्य भागों से जुड़े हुए हैं। इन किताबों के बारे में पहले के विडियो में डीटेल में बताया गया है।
तो अगर यति और सुरंगों वाली बात पर विश्वास करें तो यह संभव हो सकता है कि तिब्बत के रास्ते कैलाश मानसरोवर आने वाले विभिन्न देशों के लोग जो वहाँ से गायब हो गए, उन्हें यति ने मार कर किसी सुरंग के जरिए वहाँ से इतनी दूर लाकर इस झील में या फिर झील के ग्लेशियर के रास्ते में कहीं फेंक दिया हो जो ग्लेशियर के साथ उस झील में पहुँच गया हो।
लेकिन यह शंभाला और यति के रहस्यों में विश्वास करने वाले लोगों की एक थियरि ही है अभी तक। इस बारे में अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है।
इस तरह, धार्मिक आस्था के क्षेत्र कैलाश मानसरोवर और उसके आसपास के क्षेत्रों को लेकर अनेक रहस्यमयी दावे पुराने समय से ही किए जाते रहे हैं। इन दावों के कारण दुनियाभर के लोगों का ध्यान इधर गया है और बहुत से रिसर्च भी हुए हैं। लेकिन इन सबका अभी तक कोई भी प्रमाण नहीं मिल सका है।
वैज्ञानिक दृष्टि से कैलाश अन्य पर्वतों की तरह एक साधारण प्रकृतिक पर्वत है। आस्थावादी लोगों के अनुसार यह एक पवित्र पर्वत है जहां उनके देवता निवास करते हैं। रहस्यवादी लोगों के अनुसार जो दिख रहा है वैसा नहीं है बल्कि इस क्षेत्र में कई रहस्य हैं जिनका पता अभी दुनिया को नहीं है। खैर, ये विश्वास और संदेह ही तो नए खोजों के लिए प्रेरित करते हैं इंसान को।