राम जन्म की पृष्ठभूमि
राम जन्म की पृष्ठभूमि राजा दशरथ की पुत्रहीनता और देवताओं द्वारा रावण वध के प्रयत्न से बनी। अयोध्या के राजा दशरथ शक्तिशाली, धर्मशील और प्रजापालक राजा थे। राज्य में सुख, शान्ति और समृद्धि थी। लेकिन उनके बाद उनके वंश को चलाने वाला उनका कोई पुत्र नहीं था।
एक बार राजा दशरथ के मन में पुत्र की प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का विचार आया। उनके इस विचार को उनके मंत्रियों, ब्राह्मणों, गुरुओं आदि सबका समर्थन मिला। कुलपुरोहित ऋषि वसिष्ठ की देखरेख में यज्ञ का समस्त कार्य सम्पन्न हुआ। सरयू नदी के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हुआ।
राजा दशरथ द्वारा यज्ञ की तैयारी
इस यज्ञ के लिए राजा दशरथ अपने मंत्री सुमंत की सलाह से अंग देश के राजा रोमपाद की पुत्री शांता और उसके पति ऋषि ऋष्यशृंग को अपने यज्ञ में पुरोहित बनने के लिए जाकर बुला लाए। (विष्णु पुराण के अनुसार शान्ता दशरथ की औरस पुत्री थी, जिसे उन्होंने अपने मित्र रोमपाद को गोद दे दिया था।)
यज्ञ के लिए पूरी तैयारी होने के बाद दशरथ जी ने अश्वमेध यज्ञ के लिए अपनी पत्नियों के साथ दीक्षा लिया। विधिवत रूप से यज्ञ का कार्य पूर्ण हो गया। तब ऋष्यशृंग मुनि ने दशरथ जी से अथर्व वेद के मंत्रों से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया।
देवताओं द्वारा रावण वध के लिए प्रार्थना
इस यज्ञ में भाग लेने आए देवताओं ने ब्रह्माजी से रावण को मारने के लिए कोई उपाय करने के लिए प्रार्थना किया। ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण बहुत शक्तिशाली हो गया था। ब्रह्माजी ने मनुष्य के हाथों रावण की मृत्यु की बात बता कर देवताओं को आश्वस्त किया। वरदान के अनुसार उसे मनुष्य और वानर के हाथों मृत्यु से अभय दान नहीं मिला था।
इसी समय यज्ञशाला में भगवान विष्णु आ गए। देवताओं ने भगवान विष्णु से अपने चार रूप बना कर राजा दशरथ की तीन रानियों के गर्भ से पुत्र के रूप में अवतार लेने के लिए आग्रह किया ताकि वे मनुष्य रूप ले कर रावण को मार सकें।
भगवान विष्णु ने देवताओं को अभय करते हुए मनुष्य रूप लेकर रावण को बंधु-बांधवों सहित मारने का आश्वासन दिया। उन्होंने रावण वध के बाद ग्यारह हजार वर्षों तक पृथ्वी का पालन करते हुए मनुष्य लोक में रहने का भी वचन दिया। तदनुरूप उन्होने राजा दशरथ को अपना पिता बना कर चार रूपों में (अर्थात चार भाइयों के रूप में) मनुष्य रूप लेने का निश्चय किया।
यज्ञ कुण्ड से दिव्य पुरुष का प्रकट होना
इधर पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न होने पर दशरथ जी के यज्ञकुंड से एक विशालकाय और प्रकाशवान दिव्यपुरुष प्रकट हुआ। उसके हाथ में देवताओं द्वारा बनाई गई दिव्य खीर (हविष्य) से भरी हुई थाली थी। उसने दशरथ जी से यह खीर अपनी पत्नियों को देने के लिए कहा।
दशरथ जी ने उस खीर का आधा भाग कौशल्या को दे दिया। आधे में से पुनः आधा कर सुमित्रा को दे दिया। बचे हुए खीर रानी कैकेयी को देकर उसका बचा हुआ भाग पुनः सुमित्रा को दे दिया। इस तरह खीर के चार भाग हो गए। बड़ी और छोटी रानी कौशल्या और कैकेयी को एक-एक और मँझली रानी सुमित्रा को दो भाग मिले। तीनों रानियों ने शीघ्र ही पृथक-पृथक गर्भ धारण किया।
ब्रहमा जी द्वारा देवताओं को पृथ्वी पर जाने का निर्देश
इधर ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा कि भगवान विष्णु उन लोगों के हित के लिए मनुष्य रूप में अवतार लेने वाले हैं। इसलिए देवता भी वानर के रूप में अपने-अपने अंश को अपने पुत्र के रूप पृथ्वी पर जन्म प्रदान करें ताकि ये सब समय आने पर श्रीराम की सहायता कर सकें। ब्रह्माजी ने बताया कि जंभाई लेते समय उनके मुँह से पहले ही रीछराज जांबवान उत्पन्न हो चुके थे।
ब्रह्माजी की आज्ञा के अनुरूप देवराज इन्द्र ने अपने पुत्र के रूप में वानर राज वाली (बाली), को और सूर्यदेव ने सुग्रीव को उत्पन्न किया। तार नामक वानर देवगुरु वृहस्पति का, और गंधमादन वानर कुबेर का पुत्र था। नल विश्वकर्मा का, नील अग्नि का, मैंद और द्विविद अश्विनीकुमारों के पुत्र थे। सुषेण नामक वानर वरुण का और शरभ वानर पर्जन्य का पुत्र था। वानरों में सबसे बुद्धिमान और बलवान हनुमान वायुदेव के पुत्र थे। देवताओं की तरह अप्सराओं, किन्नर, यक्ष आदि के भी अनेक पुत्र हुए।
राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म
यज्ञ समाप्ति के बारहवें मास में चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न था। सूर्य, मंगल, शनि, वृहस्पति और शुक्र– ये पाँच गृह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे। लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति थे। दशरथ जी की बड़ी रानी कौशल्या ने श्रीराम को जन्म दिया।
इसके बाद रानी कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। तत्पश्चात रानी सुमित्रा को लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक दो पुत्र हुए। भरत का जन्म पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में हुआ था। लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म आश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में हुआ था। ये चारों भाई पृथक-पृथक गुणों से सम्पन्न और सुंदर थे। इनके जन्म पर मनुष्यों ने ही नहीं, देवताओं, गंधर्वों इत्यादि ने भी उत्सव मनाया।
चारों भाइयों के नामकरण संस्कार
जन्म के ग्यारहवें दिन चारों भाइयों का नामकरण संस्कार हुआ। कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ ने चारों भाइयों का नाम रखा। समय-समय पर इन चारों भाइयों के जातकर्म आदि संस्कार भी हुए।
चारों भाई सदगुणी, पराक्रमी और ज्ञानवान थे। लेकिन बड़े भाई राम का तेज और लोकप्रियता सबसे कुछ अधिक थी। हाथी के कंधे तथा घोड़े के पीठ पर बैठने और रथ हाँकने की कला में उन्होने विशेष निपुणता प्राप्त की थी। वे सदा धनुष विद्या का अभ्यास और पिता की सेवा करते रहते थे।
यद्यपि चारों भाइयों में बहुत स्नेह था। तथापि राम के प्रति लक्ष्मण का स्नेह कुछ विशेष था। राम को भी लक्ष्मण के बिना न तो नींद आती थी और न ही अपने भोजन में से उन्हें खिलाए बिना वे खाते थे। राम जब घोड़े पर चढ़ कर शिकार के लिए जाते थे, तो लक्ष्मण धनुष लेकर उनके पीछे उनकी रक्षा के लिए रहते थे। राम-लक्ष्मण की तरह ही भरत-शत्रुघ्न में भी बहुत स्नेह था। चारों भाई अस्त्र-शस्त्र के अभ्यास के अतिरिक्त वेदों का स्वाध्याय भी करते थे।