श्रीकृष्ण की रास लीला क्या थी?-भाग 27

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रास और महारास लीला कब हुआ था?         

भागवत में एक ही रात्री यानि शरद पूर्णिमा की रात्री का वर्णन है, जब कृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला किया था। इस लीला को दो भागों में बांटा गया है– रास और महारास। यह वर्णन इस प्रकार है:

रास लीला का वचन

श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र हरण के समय उनकी इच्छा पूरी करने के लिए उन्हे एक रात्री का संकेत दिया था। गोपियाँ भी इस रात्री की प्रतीक्षा कर रहीं थी। शरद ऋतु में पूर्णिमा की रात्री सभी तरह से सुहावन थी। भगवान ने अपने उस वचन को पूरा करने का संकल्प किया। स्वयं बिना मन का होने पर भी उन्होने प्रेमियों की इच्छा पूरी करने के लिए वे मन स्वीकार करते हैं।

बांसुरी की धुन पर गोपियों का कृष्ण के पास आना

श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी पर ब्रज की गोप कन्याओं के मन को हरणे वाली कामबीज “क्लीं” की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी। यद्यपि इन गोप कन्याओं का मन तो पहले ही उनके वश में था, लेकिन इस ध्वनि ने उनका भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा इत्यादि का ज्ञान भी हर लिया।

बांसुरी की इस ध्वनि को सुनकर सभी कन्याएँ अत्यंत वेग से वहाँ के लिए चल पड़ी। यहाँ तक कि उन सब ने एक साथ श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए साधना की थी, लेकिन अभी उन्हे अपने उन सखियों का भी भान नहीं रहा और वे सब अकेली ही श्रीकृष्ण की तरफ तेजी से चल पड़ीं।

ये गोपियाँ उस समय अपने घरों में जो भी कार्य कर रही थीं, उसे ज्यों-का-त्यों छोड़ कर भागी चली आईं। कोई दूध दुह रही थी, तो कोई भोजन बना रही थी, कोई भोजन परोस रही थी, कोई छोटे बच्चों को दूध पीला रही थी, कोई पति की सेवा कर रही थी, कोई सिंगार कर रहीं थी। सब ये सभी कार्य छोड़ कर जैसे अवस्था में थी, उसी तरह भागी। पिता, पति, भाई, बंधु-बांधवों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं।

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जो गोपियाँ घरों के अंदर थी और जिन्हें बाहर निकलने का मार्ग नहीं मिला उन्होने वहीं अपनी आँखें बंद कर ली और श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य और उनके लीलाओं का ध्यान करने लगीं। ध्यान में श्रीकृष्ण उनके सामने प्रकट हो गए। उन्होने मन-ही-मन बड़े प्रेम और आवेग से उनका आलिंगन किया। परमात्मा के आलिंगन से उनके पुण्य और पाप मय शरीर का परित्याग हो गया और उन्होने वह दिव्य शरीर प्राप्त कर लिया जिससे भगवान की लीलाओं में शामिल हो सकती थीं।        

कृष्ण द्वारा गोपियों की परीक्षा

गोपियों को अपने पास आया हुआ देख कर श्रीकृष्ण ने विनोदभरी वाक्चातुरी से उनका स्वागत किया, उनकी कुशलता पूछी और उनके वहाँ आने का कारण पूछा। उन्होने रात में वन में खतरे और उनके घरवालों द्वारा परेशान होने के कारण उन्हें लौटने के लिए कहा। उन्होने स्त्रियों का धर्म बता कर उनसे वापस लौटने के लिए कहा। उन्होने यह भी कहा कि भगवान के लीला को सुनने और उनके रूप के दर्शन और ध्यान से उनके प्रति जैसी अनन्य भक्ति की प्राप्ति होती है वैसी उनके पास रहने से भी नहीं होती है। इसीलिए गोपियों को अपने घरों को लौट जाना चाहिए।

श्रीकृष्ण की यह अप्रिय वचन सुनकर गोपियाँ उदास और खिन्न हो गईं। वे कुछ बोल नहीं सकीं, चुपचाप खड़ी रहीं। जिस कृष्ण के लिए उन्होने सारी कामनाएँ और सारे भोग छोड़ दिए उनके ऐसे अप्रिय वचन सुनकर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होने रुँधे गले से कहा कि “कृष्ण तुम तो घाट-घाट के वासी हो और हमारे हृदय की बात को जानते हो। हम सब कुछ छोड़ कर केवल तुम्हारे चरणों में प्रेम करतीं है। तुम स्वतंत्र और हठीले हो और तुम पर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी ओर से हमे वैसे ही स्वीकार कर लो जैसे आदि पुरुष भगवान नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तो को अपनाते है।” गोपियों ने कातर स्वर में उन्हे अनेक प्रकार से निवेदन किया। गोपियों की व्यथित और व्याकुल वाणी सुन कर श्रीकृष्ण द्रवित हो गए।

गोपी-कृष्ण की क्रीड़ा या रास लीला

यद्यपि भगवान आत्माराम है और अपने-आप में ही रमण करते हैं। उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी बाह्य वस्तु के अपेक्षा नहीं होती है। फिर भी उन्होने हँस कर गोपियों के साथ क्रीडा आरंभ किया। अपने स्वरूप मे एकरस स्थिर होने के बावजूद भी उन्होने अपनी भाग-भंगिमाएँ और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दिया। गोपियों से घिरे हुए वैजयंती माला पहने हुए श्रीकृष्ण की शोभा तारिकाओं से घिरे चंद्रमा के समान हो रही थी।

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श्रीकृष्ण और गोपिकाएँ वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरणे लगे। कभी गोपियाँ श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का गान करतीं तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाते। इसके बाद सभी यमुना तट पर आए। श्रीकृष्ण तरह-तरह से क्रीड़ा कर उन्हें आनंदित करने लगे।

गोपियों को श्रीकृष्ण का विरह 

श्रीकृष्ण ने रास लीला करते हुए गोपियों को सम्मान दिया। इससे उनमे अपने को श्रेष्ठ मानने का अहंकार आ गया। उनका यह अहंकार समझ कर भगवान उनके बीच से अंतर्ध्यान हो गए।

श्रीकृष्ण को वहाँ नहीं पाकर गोपियाँ अत्यंत व्याकुल हो गईं। कृष्ण प्रेम के मद से मतवाली हो कर गोपियाँ स्वयं श्रीकृष्णमयी हो गईं। वे श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं। उनका अनुकरण करते हुए गोपियाँ उनके समान ही हो गईं। उनकी भावभंगिमाएँ और चाल-ढ़ाल बिलकुल श्रीकृष्ण की तरह हो गया। वे अपने को भूल कर यही अनुभव करने लगीं कि “मैं ही कृष्ण हूँ”।

सभी मिलकर ऊँचे स्वर में श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगी और एक वन से दूसरे वन और एक झाड़ी से दूसरे झाड़ी में उन्हे ढूँढ़ने लगीं। वे वनस्पतियों से उनका पता पूछने लगीं। श्रीकृष्ण को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वे सब कातर हो गईं थी। भाव का आवेश और अधिक प्रगाढ़ होने पर वे श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। कोई कृष्ण बनी तो कोई पूतना, कोई तृणावर्त बनी तो कोई बालकृष्ण बन गईं, कोई बांसुरी बजा कर गायों को बुलाने लगीं। इस तरह सभी गोपियाँ पूरी तरह कृष्णमय हो गईं।

कृष्ण के पदचिह्नों का अनुकरण

इसी समय उन्हे एक स्थान पर श्रीकृष्ण के चरण चिह्न दिखे। जब वे उन चिह्नों के साथ आगे बढ़ी तो उन्हे उनके साथ किसी ब्रज युवती का भी पदचिह्न दिखा। इसे देख कर वे व्याकुल हो गईं और आपस में कहने लगीं कि यह कौन बड़भागी “आराधिका” है जिससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण हमे छोड़ कर उसके साथ एकांत में समय बिताने के लिए चले गए हैं।

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कुछ दूर चलने के बाद गोपी के पैर के निशान नहीं थे और श्रीकृष्ण के पैरों के निशान अधिक गहरे हो गए थे। इससे गोपियों ने अनुमान किया कि श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी को अपने कंधों पर उठा लिया होगा। एक स्थान पर उन्होने अनुमान किया कि यहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी के लिए फूल तोड़े और उसे उसके चोटी में लगाया होगा। इस तरह गोपियाँ श्रीकृष्ण के पैरों के निशान को देखते हुए अपने सुध-बुध खो कर एक वन से दूसरे वन में भटक रहीं थीं।

गोपी का अभिमान तोड़ना

इधर श्रीकृष्ण सभी गोपियों को छोड़ कर जिस एक गोपी को लेकर गए थे, उन्हें भी अभिमान हो गया कि वह अन्य गोपियों से श्रेष्ठ हैं, इसलिए कृष्ण ने उन्हें अधिक सम्मान दिया है। उन्होने अपने थके होने के कारण कृष्ण से अपने को कंधे पर उठाने के लिए कहा। कृष्ण ने उन्हे कंधे पर बैठने के लिए कहा लेकिन जब वे बैठने लगीं कृष्ण अंतर्ध्यान हो गए।

यह गोपी संभवतः राधा हो सकती है। यद्यपि भागवत में राधाजी के नाम का उल्लेख नहीं है। इस एक के अतिरिक्त अन्य कोई और वर्णन भी नहीं है जिससे यह पता चले कि सभी गोपियों में कोई एक गोपी कृष्ण को अधिक प्रिय थी। इसी एक उल्लेख के आधार पर अनेक साहित्यिक और कलात्मक वर्णन कर बाद में राधा का एक सम्पूर्ण चरित्र गढ़ लिया गया।

गोपियों को पश्चाताप

अब वह गोपी रोने और पछताने लगी। वह दुखी होकर अचेत हो गई। तब तक बाकी गोपियाँ भी पैर के निशान के ढूंढते हुए वहाँ आ पहुँचीं। उन्होने उस सखी को जगाया। उस सखी ने उन सब को बताया कि श्रीकृष्ण से उन्हे प्रेम और सम्मान प्राप्त हुआ था लेकिन उन्होने श्रीकृष्ण का अपमान किया जिससे वे अंतर्ध्यान हो गए।

इसके बाद वे सब वहाँ तक श्रीकृष्ण को ढूँढने के लिए वहाँ तक गईं जहां तक चाँदनी थी। लेकिन उसके आगे घने वृक्षों और वनस्पतियों के कारण अंधेरा था। उन्होने सोचा अगर वे उन्हे और आगे तक ढूंढती जाएंगी तो श्रीकृष्ण और आगे तक चले जाएंगे। इसलिए वे उसके आगे नहीं गईं।

गोपियाँ श्रीकृष्णमयी हो गईं थीं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उन्हें किसी और बात की सुध ही नहीं थी, अपने शरीर की भी नहीं, ऐसे में उन्हें घर की याद कैसे आता। वे सभी यमुना जी के तट पर रमणरेती वाले स्थान पर आ गईं और साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। यही गीत गोपीका गीत कहलाया।

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