संस्कृत साहित्य में प्याज
प्याज को जब हम क्षैतिज रूप से काटते हैं तो उसकी आकृति चक्र की तरह होता है। उसको जब हम लंबवत यानी की खड़े रूप से काटते हैं तो उसकी आकृति शंख की तरह होता है। शंख और चक्र दोनों ही भगवान विष्णु का प्रिय आयुध है जो हमेशा उनके हाथ में होता है, यही करण है की प्याज का संस्कृत में एक नाम है कृष्णावल। आयुर्वेद कहता है की प्याज और लहसुन के बहुत सारे औषधीय गुण भी हैं। तो एक तरफ प्याज लहसुन के इतने गुण बताया गया उससे भगवान के नाम के साथ जोड़ा गया दूसरी तरफ हमारे व्रत त्योहार में पूजा पाठ में इसको वर्ज्य माना गया है। भगवान के भोग लगाने में इसका प्रयोग नहीं होता है।
तो आज हम इस कारण को चार तरह से या चार दृष्टिकोण से देखते हैं।
सबसे पहले पुराण इसके बारे में क्या कहता है। पौराणिक कथाएं क्या है? पौराणिक मान्यताएं क्या है? दूसरा, इतिहास का क्या कहते हैं। तीसरा, आयुर्वेद क्या कहता है। चौथा, आहार संबंधी जो हमारी शास्त्रीय मान्यताएँ है वो क्या कहती हैं? और पांचवा, इसका व्यवहारिक पहलू क्या है?
प्याज-लहसुन के उत्पत्ति की पौराणिक कथाएं
प्याज लहसुन से संबंधितस सबसे प्रसिद्ध कथा इस प्रकार है:
कथा समुद्र मंथन से जुड़ा हुआ है। समुद्र मंथन देवता और दानवों दोनों ने मिलकर किया था। इस मंथन में बहुत सारे चीजों के साथ अमृत भी उत्पन्न हुआ। इस अमृत के लिए देवता और दानव दोनों ही लड़ने लगे। इस झगड़े को शांत करने के लिए भगवान विष्णु एक बहुत ही सुंदर मोहिनी स्त्री का रूप बनाकर वहां प्रकट हो गए। उन्होने सबको पंक्ति में बैठ जाने के लिए कहा ताकि सबको अमृत बाँट सके।
भगवान ने अमृत बांटने के कार्य देवताओं से शुरू किया। जब वह लगभग सारे देवताओं को अमृत दे चुके थे, तब दैत्यों की पंक्ति में बैठे हुए एक दैत्य को लगा कि ऐसा तो नहीं कि देवता हमसे बेईमानी कर ले और सारा अमृत देवताओं में ही खत्म हो जाए और हमें नहीं मिले। इसलिए वो रूप बदलकर देवताओं के पंगत में जाकर बैठ गया।
जैसे वो बैठा और मोहिनी रूपधारी विष्णु अमृत बांटते हुए उसके पास आए, तो सूर्य चंद्रमा जो पास ही बैठे हुए थे, उन्होने उसे पहचान लिया और विष्णु के बता दिया। तब तक विष्णु भी समझ चुके थे। लेकिन इस समय अमृत दे दिया था, जल्दी से उन्होने चक्र से उस दैत्य का गर्दन धड़ से अलग कर दिया। इस समय अमृत कुछ उसके गले में था और कुछ नीचे चला गया था। इसलिए वह मरा नहीं। भगवान विष्णु के चक्र से उसका सिर अलग और धड़ अलग हो गया, लेकिन वो जिंदा रहा। उसके सिर वाले भाग को राहु कहते हैं और जो धड़ वाला भाग था वह केतु कहा गया। उसका गला काटने से खून की कुछ बुँदे जमीन पर गिर गई।
गिरे हुए खून के अंश से प्याज और मांस के अंश से लहसुन बना। चूंकि इनमें अमृत का अंश है इसलिए इस औषधीय गुण बहुत सारे हैं लेकिन दानव के खून और मांस से उत्पन्न होने के कारण अशुद्ध माना गया।
यह तो है प्यास लहसुन के उत्पत्ति की पौराणिक कथा। यह सबसे लोकप्रिय कथा है। इसके अलावा कुछ दंतकथाएँ भी देश के अलग-अलग भागों में प्रचलित हैं, जैसे, ऋषि के मलमूत्र से पैदा होना, कुत्ते के नाखून से पैदा होना आदि।
आयुर्वेद का प्याज लहसुन के प्रति विचार
आयुर्वेद इन्हें औषधि की श्रेणी में रखता है लेकिन इसके अति प्रयोग को वर्जित करता है। आयुर्वेद के अनुसार ये दोनों जमीन के अंदर उगने के कारण कंद है। इसका उपयोग औषधि और मसाले के रूप में उपयोग उचित है पर सब्जी के रूप में यानि अधिक मात्रा में उपयोग नहीं होना चाहिए।
इसका कारण है कि इसमें एंटीऑक्सीडेंट और रोग प्रतिरोधक गुण होता है। पर इनका तासीर गर्म होता है। ज्यादा मात्रा में आने पर शरीर में गर्मी को बढ़ावा देता है।
इतिहासकारों की विचारधारा
इतिहासकार कहते हैं की प्याज और लहसुन भारतीय उपज नहीं है। यह वनस्पति बाहर से लायी गई हैं, विदेशियों के साथ हमारे देश में लाई गई है। यही करण है की हमारे शास्त्रों में इन्हें वर्जित किया गया है। वैदिक साहित्य- वेद और वेदांग, में प्याज और लहसुन का वर्णन नहीं है। इनकी चर्चा सबसे पहले पुराणों में मिलती हैं।
आहार के संबद्ध में शास्त्रीय धारणा
हमारे शास्त्र में आहार को तीन श्रेणी में बांटा गया है- सात्विक, रजोगुणी और तमोगुणी। माना जाता था कि हमारे भोजन का प्रभाव हमारे व्यवहार और सोच पर पड़ता है।
सात्विक भोजन में ऐसे भोजन आते थे जो वनस्पति से प्राप्त होता थे। उनमें अधिक सुगंध ज्यादा नहीं होना चाहिए क्योंकि सुंगंध भोजन की इच्छा को बढ़ावा देता है। ऐसा भोजन उन लोगों को करना चाहिए जो शारीरिक से अधिक मानसिक कार्य करते थे और उन्हें लंबे समय तक बैठना पड़ता था। मानसिक कार्य के लिए मस्तिष्क की शांति और एकाग्रता जरूरी होती है। ऐसा भोजन पुजारी, लेखक, अध्यापक, विद्यार्थी आदि के लिए उचित माना जाता था।
रजोगुणी भोजन में ऐसे भोजन आते थे जो वनस्पति से प्राप्त होता था लेकिन उनमें अधिक ऊर्जा और सुगंध होता था। ऐसे भोजन की तासीर गर्म हो सकती थी। इन भोजन का प्रभाव यह होता था कि व्यक्ति उत्साह और ऊर्जा अनुभव करता था। ऐसा भोजन ऐसे लोगों के लिए अनुकूल था जो शारीरिक कार्य करते थे और जिनके कार्य की प्रकृति ऐसी थी कि उन्हें उत्साह और ऊर्जा कि जरूरत होती थी। सैनिक, किसान, आदि इस वर्ग में आते थे।
तामसिक भोजन ऐसे भोजन होते थे जिनमें हिंसा की गई हो और जो पचने में गरिष्ठ हो। ऐसे भोजन व्यक्ति में क्रोध, उत्तेजना आदि को बढ़ावा देते थे। ये ऐसे लोगों को लिए उपयुक्त माना जाता था जो अत्यधिक शारीरिक परिश्रम वाला कार्य करते थे।
उचित भोजन व्यवसाय के आधार पर किया जाता था जन्म के आधार पर नहीं। पर व्यवसाय समान्यतः जन्म, जाति और वर्ण के आधार पर निर्भर करता था। इसलिए कई बार लगता है कि भोजन वर्ण के आधार पर है लेकिन ऐसा नहीं था। अगर कोई ब्राह्मण आजीविका के लिए सैनिक वृति अपनाता था तो उससे यह उम्मीद नहीं किया जा सकता था कि वह शांतचित्त होकर और सात्विक भोजन कर यह कार्य करे। इसलिए अपने कार्य के अनुसार वह रजोगुणी और तामसिक भोजन कर सकता था। क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र अगर ब्राह्मण वृति अपनाते थे जो उनसे सात्विक भोजन की अपेक्षा की जाती थी।
प्याज लहसुन को रजोगुणी भोजन की श्रेणी में रखा गया था। ब्राह्मण, अध्यापक, लेखक, विद्यार्थी, ब्रह्मचारी, पुजारी, इत्यादि के लिए प्याज लहसुन वर्जित किया गया था। किसी पूजा-पाठ, सावन महिना, नवरात्रि, और कई पर्व-त्योहार को, किसी अनुष्ठान के दौरान ऐसे लोगों को भी प्याज-लहसुन जैसे रजोगुणी चीजें और मांसाहार निषिद्ध किया जाता है जो समान्यतः इन चीजों को खाते हैं। कारण यही है कि इस समय उन्हें शांतचित्त और एकाग्र होकर ज्यादा देर तक बैठना पर सकता है। गरिष्ठ भोजन और गर्म तासीर का भोजन इस में बाधा बन सकता है।
यह व्यवहारिक पक्ष है प्याज लहसुन नहीं खाने का। इसलिए प्याज लहसुन खाने से पाप होता है ऐसी बात नहीं है लेकिन हां प्याज लहसुन खाने से अपने कार्यों में बाधा आ सकती है।